ज़रदोज़ी
ज़रदोज़ी फारसी एवं उर्दु: زردوزی) का काम एक प्रकार की कढ़ाई होती ह ऐ, जो भारत एवं पाकिस्तान में प्रचलित है। यह मुगल बादशाह अकबर के समय में और समृद्ध हुई, किंतु बाद में राजसी संरक्षण के अभाव और औद्योगिकरण के दौर में इसका पतन होने लगा। वर्तमान में यह फिर उभरी है। अब यह भारत के लखनऊ, भोपाल और चेन्नई आदि कई शहरों में हो रही है।[1]
ज़रदोज़ी का नाम फारसी से आया है, जिसका अर्थ है: सोने की कढ़ाई।
बनारस में
[संपादित करें]यह काम बनारस में भी प्रचलित हो रहा है। जरदोजी का काम बनारस की अपनी अलग परम्परा नहीं है परन्तु अब लोगों ने बनारसी साड़ी में भी जरदोजी का काम करना प्रारम्भ कर दिया है। बनारस में बनारसी साड़ी तथा वस्र के अलावा अन्य साड़ी, सूट के कपड़े, ड्रेस मैटीरियल्स, पर्दा, कुशन कवर आदि में भी अधिकांशतः मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग (कलाकार) लगे हुए हैं। जरदोजी बहुत ही कलात्मक तथा धैर्य का काम है। इसकी बारीकी को समझने के लिए यह जरुरी है कि इसे कम उम्र से ही सीखा जाए। फलतः जरदोजी के पेशे में बच्चे तथा औरतें भी लगे हुए हैं।
संलग्न उपकरण
[संपादित करें]चर्खे का सहारा ताग को सही करने तथा बिनने की प्रक्रिया सुगम बनाने के लिए किया जाता है। जब तक तागा (धागा) करघे के पास बिनने के लिए न आ जाए। ताग के अलावा जड़ी के ताग को भी चरखे पर ही ठीक किया जाता है। परम्परागत चर्खा लकड़ी तथा बांस की फड़ी (पट्टी) से बना होता है। हालांकि आजकल साईकिल का पिछला चक्का, चेन, तथा गीयर को भी चरखा बनाकर उससे चरखे का काम लिया जाता है। इसके सम्बन्ध में बिनकरों का कहना है कि एक तो साईकिल वाला मजबूत होता है जिससे यह ज्यादा दिन तक चलता है, दूसरा, चूंकि इसका पहिया चेन तथा गीयर से लगा होता है अतः यह लकड़ी वाले चर्खा की तुलना में ज्यादा गतिशील हो जाता है जिससे कम समय में ज्यादा से ज्यादा ताग लपेटा जाता है।
नकली जरी
[संपादित करें]पहले शुद्ध सोने तथा चांदी से जरी बनाया जाता था। अतः जब साड़ी पहनने लायक नहीं भी रहती थी तो जलाकर खासी मात्रा में सोना या चांदी इकट्ठा कर लिया जाता था। यकायक १९७७ में चांदी के भाव बहुत बढ़ गया। बढ़े भाव के चांदी से जरी बनाना बड़ा ही महंगा साबित हुआ। इसका नतीजा यह निकला की साड़ी की कीमत काफी बढ़ गयी। बढ़ी हुई कीमत में लोग साड़ी खरीदने से बचने लगे। ऐसा लगने लगा मानो अब बनारसी बिनकारी लगभग समाप्त ही हो जाएगी।
संयोग से लगभग उसी समय गुजरात के शहर सूरत में नकली जरी का निर्माण प्रारंभ हो गया था। नकली जरी देखने में बिलकुल असली जरी के जैसी ही थी परन्तु इसकी कीमत असली जड़ी के दसवें हिस्से से भी कम पड़ती थी। कुछ बिनकरों ने इस नकली जरी का प्रयोग किया। प्रयोग सफल रहा और धीरे धीरे असली जरी का स्थान नकली जरी ने ले लिया। साड़ी की मांग पुनः बाजार में जोरो के साथ बढ़ गयी। बुनकर बिरादरी फिर अपनी ढ़रकी और पौसार के आवाज में मस्त होकरबिनकरी के व्यवसाय में संलग्न हो गये।
वे नकली जरी के कार्य में इतना खो गए कि धीरे-धीरे ऐसा लगने लगा कि असली जरी का नामो-निशान मिट जाएगा। इसी बीच १९८८-१९८९ के लगभग कुछ लोगों (भारतीय रईस) तथा विदेशियों ने बनारसी साड़ी तथा वस्र में असली जरी लगवाने की इच्छा व्यक्त की। दो तीन परिवार बनारस में भी अभी भी बचा था, जिसने फिर से असली चांदी तथा सोने का जरी बनाया। और इस तरह से मांग की पूर्ति की गई।
आजकल कुछ बिनकर पहले दिए गए आॅर्डर के वस्रों तथा साड़ियों में असली जरी लगाते हैं। हालांकि असली जरी का प्रयोग बहुत ही कम होता है, फिर भी परम्परा जीवित है।
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ "Zardozi in India- Zardozi Embroidery, Zardozi Work, Zardosi Embroidery in India, Indian Zari Embroidery". मूल से 8 अप्रैल 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 20 अप्रैल 2009.
बाहरी सूत्र
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