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लेखाकरण

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लेखांकन
मुख्य संकल्पनाएँ
लेखांकक · लेखांकन अवधि · पुस्तपालन · Cash and accrual basis · Cash flow management · Chart of accounts · Constant Purchasing Power Accounting · Cost of goods sold · Credit terms · Debits and credits · Double-entry system · Fair value accounting · FIFO & LIFO · GAAP / IFRS · General ledger · Goodwill · Historical cost · Matching principle · Revenue recognition · Trial balance
लेखांकन के क्षेत्र
लागत · वित्तीय · न्यायालयिक · Fund · प्रबन्ध
वित्तीय विवरण
Statement of Financial Position · Statement of cash flows · Statement of changes in equity · Statement of comprehensive income · Notes · MD&A · XBRL
लेखापरीक्षा
लेखापरीक्षक की रिपोर्ट · वित्तीय लेखापरीक्षा · GAAS / ISA · आन्तरिक लेखापरीक्षा · Sarbanes–Oxley Act
लेखांकन योग्यताएँ
CA · CPA · CCA · CGA · CMA · CAT
नकदी प्राप्ति (कैश फ्लो) लेखाकरण में सर्वाधिक प्रयुक्त उपकरणों में से एक है।

लेखा शास्त्र शेयर धारकों और प्रबंधकों आदि के लिए किसी व्यावसायिक इकाई के बारे में वित्तीय जानकारी संप्रेषित करने की कला है।[1] लेखांकन को 'व्यवसाय की भाषा' कहा गया है।[2] हिन्दी में 'एकाउन्टैन्सी' के समतुल्य 'लेखाविधि' तथा 'लेखाकर्म' शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है।

लेखाशास्त्र गणितीय विज्ञान की वह शाखा है जो व्यवसाय में सफलता और विफलता के कारणों का पता लगाने में उपयोगी है। लेखाशास्त्र के सिद्धांत व्यावसयिक इकाइयों पर व्यावहारिक कला के तीन प्रभागों में लागू होते हैं, जिनके नाम हैं, लेखांकन, बही-खाता (बुक कीपिंग), तथा लेखा परीक्षा (ऑडिटिंग)[3]

आधुनिक युग में मनुष्य की आर्थिक क्रियाओं का रूप बहुत विस्तृत तथा बहुमुखी हो गया है। अनेक प्रकार के व्यापार व उद्योग-धन्धों तथा व्यवसायों का जन्म हो रहा है। उद्योग-धन्धों व अन्य व्यावसायिक क्रियाओं का उद्देश्य लाभार्जन होता है। व्यापारी या उद्योगपति के लिए यह आवश्यक होता है कि उसे व्यापार की सफलता व असफलता या लाभ-हानि व आर्थिक स्थिति का ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए वह पुस्तपालन तथा लेखांकन (Book-keeping and Accountancy) की प्रविधियों का व्यापक उपयोग करता है। लेखांकन-पुस्तकें बनाकर व्यापारिक संस्थाओं को अपनी आर्थिक स्थिति व लाभ-हानि की जानकारी प्राप्त होती है। यद्यपि पुस्तपालन व लेखाकर्म व्यापारी के लिए अनिवार्य नहीं होते लेकिन वे इसके बिना अपना कार्य सफलतापूर्वक संचालित नहीं कर सकते और उन्हें अपनी व्यापारिक क्रियाओं से होने वाले लाभ या हानि की जानकारी भी नहीं मिल पाती।

लेखे रखने की क्रिया किसी न किसी रूप में उस समय से विद्यमान है जब से व्यवसाय का जन्म हुआ है। एक बहुत छोटा व्यापारी मस्तिष्क में याद्दाश्त का सहारा लेकर लेखा रख सकता है, दूसरा उसे कागज पर लिखित रूप प्रदान कर सकता है। व्यवस्थित रूप से लेखा रखा जाये या अव्यवस्थित रूप से, यह लेखांकन ही कहलायेगा। जैस व्यवसाय का आकार बढ़ता गया और व्यवसाय की प्रकृति जटिल होती गई लेखांकन व्यवस्थित रूप लेने लगा। इसमें तर्क वितर्क, कारण प्रभाव विश्लेषण के आधार पर प्रतिपादित ठोस नियमों एवं सिद्धान्तों की नींव पड़ती गई एवं सामान्य लेखा-जोखा एक कालान्तर में वृहत लेखाशास्त्र के रूप में हमारे सामने आया।

लेखांकन का अर्थ एवं परिभाषा

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आधुनिक व्यवसाय का आकार इतना विस्तृत हो गया है कि इसमें सैकड़ों, सहस्त्रों व अरबों व्यावसायिक लेनदेन होते रहते हैं। इन लेन देनों के ब्यौरे को याद रखकर व्यावसायिक उपक्रम का संचालन करना असम्भव है। अतः इन लेनदेनों का क्रमबद्ध अभिलेख (records) रखे जाते हैं उनके क्रमबद्ध ज्ञान व प्रयोग-कला को ही लेखाशास्त्र कहते हैं। लेखाशास्त्र के व्यावहारिक रूप को लेखांकन कह सकते हैं। अमेरिकन इन्स्ट्टीयूट ऑफ सर्टिफाइड पब्लिक अकाउन्टैन्ट्स (AICPA) की लेखांकन शब्दावली, बुलेटिन के अनुसार ‘‘लेखांकन उन व्यवहारों और घटनाओं को, जो कि कम से कम अंशतः वित्तीय प्रकृति के है, मुद्रा के रूप में प्रभावपूर्ण तरीके से लिखने, वर्गीकृत करने तथा सारांश निकालने एवं उनके परिणामों की व्याख्या करने की कला है।’’

इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक कला है, विज्ञान नहीं। इस कला का उपयोग वित्तीय प्रकृति के मुद्रा में मापनीय व्यवहारों और घटनाओं के अभिलेखन, वर्गीकरण, संक्षेपण और निर्वचन के लिए किया जाता है।

स्मिथ एवं एशबर्न ने उपर्युक्त परिभाषा को कुछ सुधार के साथ प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार ‘लेखांकन मुख्यतः वित्तीय प्रकृति के व्यावसायिक लेनदेनों और घटनाओं के अभिलेखन तथा वर्गीकरण का विज्ञान है और उन लेनदेनें और घटनाओं का महत्वपूर्ण सारांश बनाने, विश्लेषण तथा व्याख्या करने और परिणामों को उन व्यक्तियों को सम्प्रेषित करने की कला है, जिन्हें निर्णय लेने हैं।' इस परिभाषा के अनुसार लेखांकन विज्ञान और कला दोनों ही है। किन्तु यह एक पूर्ण निश्चित विज्ञान न होकर लगभग पूर्ण विज्ञान है।

अमेरिकन एकाउन्टिग प्रिन्सिपल्स बोर्ड ने लेखांकन को एक सेवा क्रिया के रूप में परिभाषित किया है। उसके अनुसार, ‘लेखांकन एक सेवा क्रिया है। इसका कार्य आर्थिक इकाइयों के बारे में मुख्यतः वित्तीय प्रकृति की परिणामात्मक सूचना देना है जो कि वैकल्पिक व्यवहार क्रियाओं (alternative course of action) में तर्कयुक्त चयन द्वारा आर्थिक निर्णय लेने में उपयोगी हो।’

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर लेखांकन को व्यवसाय के वित्तीय प्रकृति के लेन-देनों को सुनिश्चित, सुगठित एवं सुनियोजित तरीके से लिखने, प्रस्तुत करने, निर्वचन करने और सूचित करने की कला कहा जा सकता है।

सर्वप्रथम प्रारंभिक लेखांकन के रिकॉर्ड प्राचीन बेबीलॉन, असीरिया और सुमेरिया के खंडहर ों में पाए गए, जो 7000 वर्षों से भी पहले की तारीख के हैं। तत्कालीन लोग फसलों और मवेशियों की वृद्धि को रिकॉर्ड करने के लिए प्राचीन लेखांकन की पद्धतियों पर भरोसा करते थे। क्योंकि कृषि और पशु पालन के लिए प्राकृतिक ऋतु होती है, अतः अगर फसलों की पैदावार हो चुकी हो या पशुओं ने नए बच्चे पैदा किए हों तो हिसाब-किताब कर अधिशेष को निर्धारित करना आसान हो जाता है।

लेखांकन की विशेषताएँ

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लेखांकन की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है -

लेखांकन कला और विज्ञान दोनों है

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लेखांकन एक कला और विज्ञान दोनों है। कला के रूप में यह वित्तीय परिणाम जानने में सहायक होती है। इसमें अभिलिखित तथा वर्गीकृत लेन-देनों और घटनाओं का सारांश तैयार किया जाता है। उन्हें विश्लेषित किया जाता है तथा उनका निर्वचन किया जाता है। वित्तीय समंकों का विश्लेषण एवं निर्वचन लेखांकन की कला ही है जिसके लिए विशेष ज्ञान, अनुभव और योग्यता की आवश्यकता होती है। इसी तरह एक व्यवसाय के आन्तरिक एवं बाह्य पक्षों को वित्तीय समंकों का अर्थ और इनके परिवर्तन इस प्रकार सम्प्रेषित करना जिससे कि वे व्यवसाय के सम्बन्ध में सही निर्णय लेकर बुद्धिमतापूर्ण कार्यवाही कर सकें, लेखांकन की कला ही है।

विज्ञान के रूप में यह एक व्यवस्थित ज्ञान शाखा है। इसमें लेनदेनों एवं घटनाओं का अभिलेखन, वर्गीकरण एवं संक्षिप्तिकरण के निश्चित नियम है। इन निश्चित नियमों के कारण ही लेखों का क्रमबद्ध व व्यवस्थित रूप से अभिलेखन किया जाता है। किन्तु यह एक 'पूर्ण निश्चित' (exact) विज्ञान न होकर 'लगभग पूर्ण विज्ञान' (exacting science) है।

लेखांकन की वित्तीय प्रकृति (Financial Character)

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लेखांकन में मुद्रा में मापन योग्य वित्तीय प्रकृति की घटनाओं और व्यवहारों का ही लेखा किया जाता है। ऐसे व्यवहार जो वित्तीय प्रकृति के नहीं होते, उनका लेखा पुस्तकों में नहीं किया जाता। उदाहरण के लिए, यदि एक संस्था के पास समर्पित व विश्वसनीय कर्मचारियों की एक टोली हो जो व्यवसाय के लिए बहुत उपयोगी है, का लेखा व्यवसाय की पुस्तकों में नहीं किया जायेगा क्योंकि यह वित्तीय प्रकृति की नहीं है तथा इसे मुद्रा में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

सेवा कार्य के रूप में

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लेखांकन सिद्धान्त बोर्ड की परिभाषा के अनुसार लेखांकन एक सेवा कार्य है। इसका उद्देश्य व्यावसायिक क्रियाओं के बारे में परिमाणात्मक वित्तीय सूचनाएं उपलब्ध कराना है। लेखांकन के अन्तिम उत्पाद अर्थात् वित्तीय विवरण (लाभ-हानि खाता व चिट्ठा) उनके लिए उपयोगी है जो वैकल्पिक कार्यों के बारे में निर्णय लेते हैं। लेखांकन स्वयं किसी धन का सृजन नहीं करता है, यद्यपि यह इसके उपयोगकर्ताओं को उपयोगी सूचना उपलब्ध कराता है जो इन्हें धन के सृजन एवं रख रखाव में सहायक होता है।

लेखांकन के उद्देश्य

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लेखांकन के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार है -

विधिवत अभिलेख रखना

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प्रत्येक व्यावसायिक लेन-देन को पुस्तकों में क्रमबद्ध तरीके से लिखना व उचित हिसाब रखना लेखांकन का प्रथम उद्देश्य है। लेखांकन के अभाव में मानव स्मृति (याददास्त) पर बहुत भार होता जिसका अधिकांश दशाओं में वहन करना असम्भव होता। विधिवत अभिलेखन से भूल व छल-कपटों को दूर करने में सहायता मिलती है।

व्यावसायिक सम्पत्तियों को सुरक्षित रखना

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लेखांकन व्यावसायिक सम्पत्तियों के अनुचित एवं अवांछनीय उपयोग से सुरक्षा करता है। ऐसा लेखांकन द्वारा प्रबन्ध को निम्न सूचनाएं प्रदान करने के कारण सम्भव होता है -

  • (१) व्यवसाय में स्वामियों के कोषों की विनियोजित राशि,
  • (२) व्यावसाय को अन्य व्यक्तियों को कितना देना है,
  • (३) व्यवसाय को अन्य व्यक्तियों से कितना वसूल करना है,
  • (४) व्यवसाय के पास स्थायी सम्पत्तियां, हस्तस्थ रोकड़, बैंक शेष तथा कच्चा माल, अर्द्ध-निर्मित माल एवं निर्मित माल का स्टॉक कितना है?

उपर्युक्त सूचना व्यवसाय स्वामी को यह जानने में सहायक होती है कि व्यवसाय के कोष अनावश्यक रूप से निष्क्रिय तो नहीं पड़े हैं।

शुद्ध लाभ या हानि का निर्धारण

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लेखांकन अवधि के अन्त में व्यवसाय संचालन के फलस्वरूप उत्पन्न शुद्ध लाभ अथवा हानि का निर्धारण लेखांकन का प्रमुख उद्देश्य है। शुद्ध लाभ अथवा हानि एवं निश्चित अवधि के कुछ आगमों एवं कुछ व्ययों का अन्तर होता है। यदि आगमों की राशि अधिक है तो शुद्ध लाभ होगा तथा विपरीत परिस्थिति में शुद्ध हानि। यह प्रबन्धकीय कुशलता तथा व्यवसाय की प्रगति का सूचक होता है। यही अंशधारियों में लाभांश वितरण का आधार होता है।

व्यवसाय की वित्तीय स्थिति का निर्धारण

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लाभ-हानि खाते द्वारा प्रदत्त सूचना पर्याप्त नहीं है। व्यवसायी अपनी वित्तीय स्थिति भी जानना चाहता है। इसकी पूर्ति चिट्ठे द्वारा की जाती है। चिट्ठा एक विशेष तिथि को व्यवसाय की सम्पत्तियों एवं दायित्वों का विवरण है। यह व्यवसाय के वित्तीय स्वास्थ्य को जानने में बैरोमीटर का कार्य करता है।

विवेकपूर्ण निर्णय लेने में सहायक

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विवेकपूर्ण निर्णय लेने के लिए सम्बन्धित अधिकरियों एवं संस्था में हित रखने वाले विभिन्न पक्षकारों को वांछित सूचना उपलब्ध कराना, लेखांकन का उद्देश्य है। अमेरिकन अकाउंटिंग एसोसिएशन ने भी लेखांकन की परिभाषा देते हुए इस बिन्दु पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार,

‘‘लेखांकन सूचना के उपयोगकर्ताओं द्वारा निर्णयन हेतु आर्थिक सूचना को पहचानने, मापने तथा सम्प्रेषण की प्रक्रिया है।’’

लेखांकन के कार्य

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लेखा करना (Recording)

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लेखांकन का सर्वप्रथम कार्य समस्त व्यवसायिक सौदों एवं घटनाओं का व्यवस्थित एवं विधिवत् ढंग से जर्नल (Journal) में लेखा करना है। यहां यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि लेखांकन में उन्हीं सौदों एवं घटनाओं का लेखा किया जाता हैं जो वित्तीय स्वभाव की हैं तथा जिन्हें मुद्रा के रूप में व्यक्त किया जा सकता है।

वर्गीकरण करना

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मौद्रिक सौदों का लेखा करने के पश्चात् उन्हें उनके स्वभाव के अनुसार समानता के आधार पर पृथक पृथक समूहों में वर्गीकरण किया जाता है ताकि पृथक पृथक मदों के लिये पृथक पृथक सूचनाएं उपलब्ध हो सकें। उदाहरणतया समस्त बिक्री के सौदो को, जो भिन्न भिन्न स्थानों पर लिखे गये हैं, एक ही स्थान पर एकत्रित करना, ताकि कुल बिक्री की राशि ज्ञात हो सके। यह कार्य खाताबही में खाते खोलकर किया जाता है।

संक्षिप्तीकरण (Summarizing)

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लेखांकन का मुख्य उद्देश्य निर्णय लेने वालों के लिये महत्वपूर्ण सूचना प्रदान करना है। इस कार्य के लिये वर्ष के अन्त में सभी खातों के शेष ज्ञात करके उनसे एक सूची बनाई जाती है और उस सूची से दो विवरण- लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा तैयार किया जाता है। इन विवरणों से व्यवसाय की लाभदायकता, वित्तीय स्थिति, भुगतान क्षमता आदि के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध हो जाती है। इस प्रकार वर्षभर की समस्त सूचनाऐं संक्षिप्त होकर दो विवरणों में समा जाती है जो व्यवसाय के अन्तिम परिणाम दर्शाती है।

निर्वचन करना (Interpreting)

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लेखांकन न केवल लेखा करने, वर्गीकरण करने एवं संक्षिप्तीकरण करने का ही कार्य करती है बल्कि उन आंकड़ों का निर्वचन करके निष्कर्ष एवं उपयोगी सूचनाऐं भी प्रदान करती है। उदाहरणतया संस्था में प्रत्याय की दर क्या रही ? विज्ञापन का प्रभाव बिक्री में वृद्धि पर कितना हुआ? तरलता तथा भुगतान क्षमता की स्थिति आदि सूचनाएं उपलब्ध हो जाती है।

सूचनाओं का संवहन (Communication of information)

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लेखों के विश्लेषण एवं निर्वचन से प्राप्त सूचनाओं का उनके प्रयोगकर्ताओं जैसे विनियोजकों, लेनदारों, सरकार, स्वामियों आदि तथा व्यवसाय में हित रखने वाले अन्य व्यक्तियों को संवहन किया जाता है ताकि वे व्यवसाय की वित्तीय स्थिति के सम्बन्ध में अपनी राय बना सकें तथा भावी योजना के सम्बन्ध में निर्णय ले सके।

वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति

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लेखांकन का अन्तिम कार्य ऐसी व्यवस्था करना भी हैं जिससे विभिन्न वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। अनेक ऐसे कानून हैं जिनकी पूर्ति करना एक व्यवसायी के द्वारा अनिवार्य है जैसे आयकर की रिटर्न प्रस्तुत करना, बिक्रीकर की रिटर्न प्रस्तुत करना, सेबी (SEBI) के द्वारा बनाये गये नियमों की पालना करना आदि। लेखांकन इस कार्य में सहायता करती है।

लेखांकन की आवश्यकता

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आधुनिक व्यापारिक क्रियाओं के सफल संचालन के लिए लेखांकन को एक आवश्यकता (छमबमेपजल) समझा जाता है। लेखांकन क्यों आवश्यक है, इसे निम्न तर्कों से स्पष्ट किया जा सकता है -

  • (१) व्यापारिक लेन-देन को लिखित रूप देना आवश्यक होता है- व्यापार में प्रतिदिन अनगिनत लेन-देन होते हैं, इन्हें याद नहीं रखा जा सकता। इनको लिख लेना प्रत्येक व्यापारी के लिए आवश्यक होता है। पुस्तपालन के माध्यम से इन लेन-देनों को भली-भांति लिखा जाता है।
  • (२) बेईमानी व जालसाजी आदि से बचाव के लिए लेन-देनों का समुचित विवरण रखना होता है - व्यापार में विभिन्न लेन-देनों में किसी प्रकार की बेईमानी, धोखाधड़ी व जालसाजी न हो सके, इसके लिए लेन-देनों का समुचित तथा वैज्ञानिक विधि से लेखा होना चाहिए। इस दृष्टि से भी पुस्तपालन को एक आवश्यक आवश्यकता समझा जाता है।
  • (३) व्यापारिक करों के समुचित निर्धारण के लिए पुस्तकें आवश्यक होती हैं - एक व्यापारी अपने लेन-देनों के भली-भांति लिखने, लेखा पुस्तकें रखने तथा अन्तिम खाते आदि बनाने के बाद ही अपने कर-दायित्व की जानकारी कर सकता है। पुस्तपालन से लेन-देनों के समुचित लेखे रखे जाते हैं। विक्रय की कुल राशि तथा शुद्ध लाभ की सही व प्रामाणिक जानकारी मिलती है जिसके आधार पर विक्रय-कर व आयकर की राशि के निर्धारण में सरलता हो जाती है।
  • (४) व्यापार के विक्रय-मूल्य के निर्धारण में पुस्तपालन के निष्कर्ष उपयोगी होते हैं - यदि व्यापारी अपने व्यापार के वास्तविक मूल्य को जानना चाहता है या उसे उचित मूल्य पर बेचना चाहता है तो लेखा पुस्तकें व्यापार की सम्पत्तियों व दायित्वों आदि के शेषों के आधार पर व्यापार के उचित मूल्यांकन के आंकड़े प्रस्तुत करती है।

लेखांकन की विशेषता

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  • 1. पूंजी या लागत का पता लगाना- समस्त सम्पत्ति (जैसे मशीन, भवन, रोकड़ इत्यादि) में लगे हुए धन में से दायित्व (जैसे लेनदार, बैंक का ऋण इत्यादि) को घटाकर किसी विशेष समय पर व्यापारी अपनी पूंजी मालूम कर सकता है।
  • 2. विभिन्न लेन-देनों को याद रखने का साधन - व्यापार में अनेकानेक लेन-देन होते हैं। उन सबको लिखकर ही याद रखा जा सकता है और उनके बारे में कोई जानकारी उसी समय सम्भव हो सकती है जब इसे ठीक प्रकार से लिखा गया हो।
  • 3. कर्मचारियों के छल-कपट से सुरक्षा- जब लेन-देनों को बहीखाते में लिख लिया जाता है तो कोई कर्मचारी आसानी से धोखा, छल-कपट नहीं कर सकता और व्यापारी को लाभ का ठीक ज्ञान रहता है। यह बात विशेषकर उन व्यापारियों के लिये अधिक महत्व की है जो अपने कर्मचारियों पर पूरी-पूरी दृष्टि नहीं रख पाते हैं।
  • 4. समुचित आयकर या बिक्री कर लगाने का आधार- अगर बहीखाते ठीक रखे जायें और उनमें सब लेनदेन लिखित रूप में हों तो कर अधिकारियों को कर लगाने में सहायता मिलती है क्योंकि लिखे हुए बहीखाते हिसाब की जांच के लिए पक्का सबूत माने जाते हैं।
  • 5. व्यापार खरीदने बेचने में आसानी - ठीक-ठीक बहीखाते रखकर एक व्यापारी अपने कारोबार को बेचकर किसी सीमा तक उचित मूल्य प्राप्त कर सकता है। साथ ही साथ खरीदने वाले व्यापारी को भी यह संतोष रहता है कि उसे खरीदे हुऐ माल का अधिक मूल्य नहीं देना पड़ा।
    • 6. अदालती कामों में बहीखातों का प्रमाण (सबूत) होना- जब कोई व्यापारी दिवालिया हो जाता है (अर्थात् उसके ऊपर ऋण, उसकी सम्पत्ति से अधिक हो जाता है) तो वह न्यायालय में बहीखाते दिखाकर अपनी निर्बल स्थिति का सबूत दे सकता है और वह न्यायालय से अपने को दिवालिया घोषित सकता है। उसके ऐसा करने पर उसकी सम्पत्ति उसके महाजनों के अनुपात में बंट जाती है और व्यापारी ऋणों के दायित्व से छूट जाता है। यदि बहीखाते न हों तो न्यायालय व्यापारी को दिवालिया घोषित करने में संदेह कर सकता है।
  • 7. व्यापारिक लाभ-हानि जानना - बही खातों में व्यापार व लाभ-हानि खाते निश्चित समय के अन्त में बनाकर कोई भी व्यापारी अपने व्यापार में लाभ या हानि मालूम कर सकता है।
  • 8. पिछले आँकड़ों से तुलना - समय-समय पर व्यापारिक आँकड़ों द्वारा अर्थात् क्रय-विक्रय, लाभ-हानि इत्यादि की तुलना पिछले सालों के आंकड़ों से करके व्यापार में आवश्यक सुधार किए जा सकते हैं।
  • 9. वस्तुओं की कीमत लगाना- यदि व्यापारी माल स्वयं तैयार कराता है और उन सब का हिसाब बहीखाते बनाकर रखता है तो उसे माल तैयार करने की लागत मालूम हो सकती है। लागत के आधार पर वह अपनी निर्मित वस्तुओं का विक्रय मूल्य निर्धारित कर सकता है।
  • 10. आर्थिक स्थिति का ज्ञान- बहीखाते रखकर व्यापारी हर समय यह मालूम कर सकता है कि उसकी व्यापारिक स्थिति संतोषजनक है अथवा नहीं।

पुस्तपालन (बुककीपिंग) तथा लेखाकर्म (एकाण्टैंसी) में अन्तर

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क्रमांक अन्तर का आधार पुस्तपालन लेखाकर्म
\uu k अर्थ पुस्तपालन का अर्थ व्यापारिक लेन-देन को प्रारम्भिक पुस्तकों व खातों में लिखना होता है। लेखाकर्म से आशय है प्रारम्भिक पुस्तकों व खातों की सूचनाओं से अन्तिम खाते बनाना व व्यावसायिक निष्कर्षों को ज्ञात करना व उनका विश्लेषण करना।
मुख्य उद्देश्य पुस्तपालन का मुख्य उद्देश्य दिन प्रतिदिन के लेनदेनों को क्रमबद्ध रूप से पुस्तकों में लिखना है। इसका मुख्य उद्देश्य पुस्तपालन से प्राप्त सूचनाओं से निष्कर्ष निकालना व उनका विश्लेषण करना है।
क्षेत्र इसका क्षेत्र व्यापारिक लेनदेनों को लेखों की प्रारम्भिक पुस्तकों में लिखने व खाते बनाने तक सीमित रहता है। इसका क्षेत्र निरन्तर विस्तृत होता जा रहा है। लेखा पुस्तकों से व्यापारिक निष्कर्ष निकालना, उनका विश्लेषण करना तथा प्रबन्ध को उपयोगी सूचनाएंदेना इसके क्षेत्र में सम्मिलित हैं।
कार्य की प्रकृति इसका कार्य एक प्रकार से लिपिक प्रकृति का होता है। लेखाकर्म एक प्रकार से तकनीकी प्रकृति का कार्य है।
परस्पर निर्भरता पुस्तपालन का कार्य स्वतंत्र रूप से किया जा सकता है। यह लेखाकर्म पर किसी प्रकार से निर्भर नहीं होता है। लेखाकर्म पूर्ण रूप से पुस्तपालन से प्राप्त सूचनाओं पर निर्भर होता है।

लेखांकन की प्रमुख प्रणालियां

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लेखांकन की अनेक प्रणलियाँ (systems) हैं जिनमें से निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

1. नकद लेन-देन (Cash system)

2. इकहरा लेखा प्रणाली (Single Entry System)

3. दोहरा लेखा प्रणाली (Double Entry System)

4. भारतीय बहीखाता प्रणाली (Indian Book-Keeping System)

नकद लेन-देन (रोकड़) प्रणाली

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इस प्रणाली का प्रयोग अधिकतर गैर व्यापारिक संस्थाओं जैसे क्लब, अनाथालय, पुस्तकालय तथा अन्य समाज सेवी संस्थाओं द्वारा किया जाता है। इन संस्थाओं का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता और ये पुस्तपालन से केवल यह जानना चाहती है कि उनके पास कितनी रोकड़ आयी तथा कितनी गयी और कितनी शेष है रोकड़ प्रणाली के अन्तर्गत केवल रोकड़ बही (कैश बुक) बनायी जाती है। इस पुस्तक में सारे नकद लेनदेनों को लिखा जाता है। वर्ष के अन्त में कोई अन्तिम खाता या लाभ-हानि खाता आदि नहीं बनाया जाता। आय-व्यय की स्थिति को समझने के लिए एक आय-व्यय खाता (Income & Expenditure Account) बनाया जाता है।

इकहरा लेखा प्रणाली

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इस पद्धति में नकद लेन-देनों को रोकड पुस्तक में तथा उधार लेन देनों को खाता बही में लिखा जाता है। यह प्रणाली मुख्यतः छोटे फुटकर व्यापारियों द्वारा प्रयोग की जाती है। इस प्रकार पुस्तकें रखने से केवल यह जानकारी होती है कि व्यापारी की रोकड़ की स्थिति कैसी है, अर्थात् कितनी रोकड़ आयी तथा कितनी गयी तथा कितनी शेष है। किसको कितना देना है तथा किससे कितना लेना है, इसकी जानकारी खाता बही से हो जाती है। इस पद्धति से लाभ-हानि खाता व आर्थिक चिट्ठा बनाना संभव नहीं होता जब तक कि इस प्रणाली को दोहरा लेखा प्रणाली में बदल न दिया जाय। इसलिए इस प्रणाली को अपूर्ण प्रणाली माना जाता है।

दोहरा लेखा प्रणाली

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यह पुस्तपालन की सबसे अच्छी प्रणाली मानी जाती है। इस पद्धति में प्रत्येक व्यवहार के दोनों रूपों (डेबिट व क्रेडिट या ऋण व धनी) का लेखा किया जाता है। यह कुछ निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होती है। वर्ष के अन्त में अन्तिम खाते बनाकर व्यवसाय की वास्तविक स्थिति की जानकारी करना इस पद्धति के माध्यम से आसान होता है।

भारतीय बहीखाता प्रणाली

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यह भारत में अत्यन्त प्राचीनकाल से प्रचलित पद्धति है। अधिकांश भारतीय व्यापारी इस प्रणाली के अनुसार ही अपना हिसाब-किताब रखते हैं। यह भी निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित पूर्णतया वैज्ञानिक प्रणाली है। इस प्रणाली के आधार पर भी वर्ष के अन्त में लाभ-हानि खाता तथा आर्थिक चिट्ठा बनाया जाता है।

लेखांकन की शाखायें

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वित्तीय लेखांकन (Financial accounting)

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वित्तीय लेखांकन का मुख्य उद्देश्य वित्तीय सूचनाओं को पहचानना, मापना, लिखना, संवहन करना और साथ ही व्यापारिक सौदों को लेखा पुस्तकों में इस प्रकार से दर्ज करना जिससे कि एक निश्चित अवधि के लिए व्यवसाय के संचालनात्मक परिणाम ज्ञात किये जा सकें तथा एक निश्चित तिथि को आर्थिक स्थिति का पता लगाना है।

लागत लेखांकन (Cost accounting)

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लागत लेखांकन लागतों के लेखे करने की एक ऐसी प्रक्रिया है जो आय व व्यय, अथवा उन आधारों के जिन पर उनका (आय तथा व्यय का) परिकलन किया जाता है, के अभिलेखन से आरम्भ होती है तथा सांख्यिकीय समंकों के तैयार होने के साथ ही समाप्त हो जाती है। इस लेखा विधि में वर्तमान लागत के साथ साथ भावी व्ययों पर भी विचार किया जाता है।

प्रबन्ध लेखांकन (Management Accounting)

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प्रबन्ध लेखांकन से तात्पर्य लेखांकन एवं सांख्यिकीय प्रविधियों की सूचना को प्रस्तुत करने एवं निर्वचन करने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए प्रयोग से है। यह सूचना प्रबन्धकों को अधिकतम कुशलता लाने तथा भविष्य की योजनाओं पर विचार करने, उन्हें प्रतिपादित करने एवं समन्वित करने के पश्चात् उनके निष्पादन को मापने के कार्य में सहायता प्रदान करने के लिए अभिकल्पित की जाती है।

मानव संसाधन लेखांकन (Human Resource Accounting-HRA)

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अगर हमें किसी उपक्रम की स्थिरता, विकास और लाभदायकता सुनिश्चित करनी हो तो उसकी मानव सम्पत्ति से अधिक महत्वपूर्ण अन्य कोई सम्पत्ति नहीं है। इसकी महत्ता तब आसानी से समझी जा सकती है जब उत्पादन के अन्य साधन पूंजी, सामग्री, मशानें आदि सब उपलब्ध हैं और श्रमिक उपलब्ध न हों। इतना होते हुए भी इस महत्वपूर्ण सम्पत्ति का लेखांकन एवं मूल्यांकन आर्थिक चिट्ठे में किसी भी प्रकार परिलक्षित नहीं होता है। परिणामस्वरूप दो फर्मां के आर्थिक परिणाम की केवल विनियोजित पूंजी पर प्रत्याय आदि के आधार पर तुलना अपूर्ण एवं कभी कभी तो भ्रामक होती है। लेखांकन में इस कमी को दूर करने के लिए मानव संसाधन मूल्यांकन एवं लेखों में दर्ज कर वित्तीय परिणामों में प्रदर्शित करने की एक नयी प्रणाली विकसित हुई है जिसे मानव संसाधन लेखांकन के नाम से जाना जाता है। अमेरिकन एकाउन्टिंग एसोशियेशन की मानव संसाधन लेखांकन समिति के अनुसर, ‘‘मानव संसाधन लेखांकन मानव संसाधनों को पहचानने, इसका आंकडों के रूप में मापन करने और इस सूचना को सम्बन्धित पक्षों तक संवहित पक्षों तक संवहित करने की प्रक्रिया है।’’

मुद्रा-स्फीति लेखांकन (Inflation Accounting)

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बीते हुए समय की दीर्घ अवधि की मूल्य स्थिति को देखा जाये तो एक बात सर्वमान्य स्पष्ट है कि विश्व में प्रत्येक वस्तु के मूल्यां में सामान्यतः वृद्धि हुई है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मूल्य सूचकांकों में परिवर्तन की गति बेहद तीव्र हुई। मुद्रा स्फीति की इस स्थिति ने व्यावसायिक जगत में आर्थिक परिणामों की तुलनीयता को निरर्थक बना दिया। मुद्रा स्फीति के इस दुष्परिणाम का प्रभाव शून्य पर वास्तविक परिणामों की जानकारी करने के लिए मुद्रा स्फीति मूल्य सूचकांकां की सहायता से लाभ-हानि खाते को समायोजित किया जाता है और इसी प्रकार से चिट्ठे में स्थायी सम्पत्तियों के मूल्यों को समायोजित किया जाता है। पुनर्मूल्यांकन द्वारा भी अन्तिम खातों को तैयार किया जाता हे। वर्तमान में इस लेखांकन की दो विधियां-वर्तमान लागत लेखांकन तथा वर्तमान क्रय शक्ति लेखांकन प्रचलन में है।

सामाजिक दायित्व लेखांकन (Social Responsibility Accounting)

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वर्तमान कुछ दशकों से व्यवसाय में सामाजिक दायित्व की विचारधारा का प्रादुर्भाव हुआ है। बदलते हुए सामाजिक मूल्यों और आशाओं ने समाज में व्यवसाय की भूमिका के बारे में विचार को बढाया है और यह विचार व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की प्रकृति पर केन्द्रित हो गया है। यह माना जाने लगा है कि इस उत्तरदायित्व को लेखांकन के एक रूप सामाजिक दायित्व लेखांकन द्वारा पूरा किया जा सकता है। चूंकि व्यवसाय उत्पादन के साधन स्थानीय स्रोतों से प्राप्त करना है अतः पर्यावरण में उसके कारण अनेक हानिकारक परिवर्तन होते हैं। सामाजिक लेखांकन के अंतर्गत सामाजिक लाभ-हानि खाता तथा सामाजिक चिट्ठा तैयार करके एक व्यवसाय यह दर्शा सकता है कि उसने सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह किस सीमा तक किया है।

लेखांकन सूचना के प्रमुख उपयोगकर्ता

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लेखांकन का मूल उद्देश्य संस्था में हित रखने वाले आंतरिक (स्वामियों, प्रबन्ध, कर्मचारी) तथा बाह्य (विनियोजक, लेनदार, सरकार, उपभोक्ता, शोधकर्ता) पक्षकारों को आवश्यक सूचनाएं उपलब्ध कराना है। किन्तु किस पक्षकार को कैसी सूचनाएं चाहिए, यह उसके व्यवसाय में हित की प्रकृति पर निर्भर करता है। विभिन्न पक्षकारों की दृष्टि से आवश्यक लेखांकन सूचना का विवेचन इस प्रकार है-

व्यवसाय का स्वामी

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स्वामी व्यवसाय के संचालन के लिए कोषों की व्यवस्था करते हैं, अतः वे यह जानना चाहते हैं कि उनके द्वारा प्रदत्त कोषों का विनियोग किया है। उस की लाभदायकता एवं वित्तीय स्थिति जानने के लिए लेखांकन सूचनाएं चाहते हैं। ऐसी सूचनाऐं समय-समय पर लेखांकन अभिलेखों से तैयार किये गये वित्तीय विवरणों द्वारा प्रदान की जाती है।

प्रबन्धकर्ता

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दूसरे से कार्य करवाने की कला ही प्रबन्ध है। अतः प्रबन्ध को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके अधीनस्थ कर्मचारी उचित कार्य कर रहे हैं या नहीं। इस सम्बन्ध में लेखांकन सूचनाएं बहुत सहायक होती हैं क्योंकि इससे प्रबन्धक कर्मचारियों के निष्पादन का मूल्यांकन कर सकता है। कर्मचारियों के वास्तविक निष्पादन की पूर्व निर्धारित प्रमापों से तुलना करके सुधारात्मक कार्यवाही की जा सकती है, यदि वास्तविक निष्पादन वांछित स्तर का नहीं है। वास्तव में लेखांकन सूचनाएं ही प्रबन्ध की वित्तीय नीति, नियोजन एवं नियंत्रण का आधार होती हैं।

विनियोजक (इन्वेस्टर)

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विनियोजकों के अंतर्गत संभावी अंशदारी तथा दीर्घकालीन ऋणदाता सम्मिलित होते हैं। इनका हित अपने विनियोग की सुरक्षा तथा उस पर पर्याप्त आय प्राप्त करना होता है। अतः इन्हें संस्था के भूतकालीन निष्पादन का मूल्यांकन करने तथा भावी संभावनाओं का पता लगाने के लिए लेखांकन सूचनाओं की आवश्यकता होती है, इसलिए विनियोजक अपने विनियोग निर्णयों के लिए वित्तीय विवरणों में सम्मिलित लेखांकन सूचनाआें पर निर्भर होते हैं। वे जिस संस्था में विनियोग करना चाहते हैं, लेखांकन सूचनाओं के आधार पर उस संस्था की लाभदायकता एवं वित्तीय स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं।

लेनदार (Creditors)

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लेनदारों में माल के पूर्ति कर्ता, बैंकर्स एवं अन्य ऋणदाता सम्मिलित होते हैं। ये ऋण देने से पूर्व संस्था की वित्तीय स्थिति जानना चाहते हैं तथा इस बात से आश्वस्त होना चाहते हैं कि संस्था समय पर ऋणों का भुगतान कर देगी। दूसरे शब्दों में, संस्था की तरल स्थिति संतोषप्रद है। संस्था की तरलता स्थिति की जानकारी के लिए इन्हें चालू सम्पत्तियों, तरल सम्पत्तियों तथा चालू दायित्वों सम्बन्धी लेखांकन सूचनाओं की आवश्यकता होती है, जो इन्हें संस्था के वित्तीय विवरणों से उपलब्ध होती है।

नियामक एजेन्सियाँ (Regulatory Agencies)

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विभिन्न सरकारी विभाग तथा एजेन्सियां जैसे कम्पनी लॉ बोर्ड, रजिस्ट्रार ऑफ कम्पनीज, आयकर विभाग, स्कन्ध विपणी आदि भी कम्पनियों की वित्तीय सूचना में रूचि रखती है। इन एजेन्सियों का उद्देश्य यह आश्वस्त करना होता है कि कम्पनी ने अपने लेखों में कर, लाभांश, हृस आदि के सम्बन्ध में अधिनियम की व्यवस्थाओं का पालन किया है अथवा नहीं तथा अपने लाभों एवं वित्तीय स्थिति को सही व सच्चे ढंग से प्रस्तुत किया है अथवा नहीं।

सरकार व्यावसायिक संस्थाओं की कर देय क्षमता का निश्चित लेखा विवरणों से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर ही करती है। ये सूचनाएं सरकार की भावी कर नीति, उत्पादन, मूल्य नियंत्रण, अनुदान, लाइसेन्स, आयात-निर्यात नीति में दी जाने वाली सुविधाएं आदि का आधार होती है। सरकार को व्यावसायिक संस्थाओं की लेखांकन सूचनाओं की आवश्यकता राष्ट्रीय आय का निर्धारण करने हेतु भी होती है। कभी कभी संस्था के उत्पादों का मूल्य निर्धारित करने के लिए भी मूल्यांकन सूचनाओं की आवश्यकता होती है, ताकि उपभोक्ताओं एवं उत्पादकों का शोषण न हो सके।

कर्मचारी

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संस्था की आर्थिक सुदृढ़ता में कर्मचारियों की रूचि होती है क्योंकि बोनस का भुगतान अर्जित लाभों पर निर्भर करता है। इसके अतिरिक्त नियोक्ताओं और श्रम संघों के बीच सामूहिक सौदेबाजी लेखांकन सूचनाओं के आधार पर ही की जाती है।

शोधकर्ता

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लेखांकन सूचना जो किसी व्यावसायिक संस्था के वित्तीय निष्पादन का दर्पण कही जाती है, शोधकर्ताओं के लिए बहुत मूल्यवान होती है। एक कार्य विशेष की वित्तीय क्रियाओं का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं को क्रय, विक्रय, चालू सम्पत्ति एवं दायित्व, स्थायी सम्पत्तियां, दीर्घकालीन दायित्व, स्वामियों के कोष आदि के बारे में विस्तृत लेखांकन सूचनाओं की आवश्यकता होती है, ऐसी सूचनाएं संस्था द्वारा रखे गये लेखांकन अभिलेखों से ही प्राप्त की जा सकती हैं।

खातों के प्रकार

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प्रत्येक लेनदेन में दो पहलू या पक्ष होते हैं। खाता-बही (Ledger) में प्रत्येक पक्ष का एक खाता बनाया जाता है। खाता (Account) खाता बही (लेजर) का वह भाग है जिसमें व्यक्ति, वस्तुओं अथवा सेवाओं के सम्बन्ध में किए हुए लेनदेनों का सामूहिक विवरण लिखा जाता है। इस प्रकार प्रत्येक खाते की स्थिति का पता लग जाता है कि वह खाता लेनदार (Creditor) है तथा देनदार (Debtor)। दोहरी प्रणाली के अनुसार स्रोतों में लेनदेनों को लिखने के लिए खातों के वर्गीकरण को जानना आवश्यक है।

खातों के प्रकार
  • व्यक्तिगत खाते (Personal accounts)
  • 1. एक व्यक्ति का खाता, (जैसे राम का खाता, मोहन का खाता, पूंजी खाता)
  • 2. फर्म का खाता (जैसे गुप्ता ब्रदर्स, मै. गणेश प्रसाद राजीव कुमार)
  • अव्यक्तिगत खाते (Impersonal accounts)
  • वास्तविक खाते (real accounts)
  • माल खाता (Goods account),
  • रोकड खाता (cash account)
  • मशीन खाता
  • भवन खाता आदि
  • नाममात्र खाते (nominal accounts)
  • आय के खाते
  • प्राप्त ब्याज खाता
  • कमीशन खाता, आदि
  • व्यय के खाते
  • वेतन खाता
  • किराया खाता
  • मजदूरी खाता
  • ब्याज खाता आदि

व्यक्तिगत खाते

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जिन खातों का सम्बन्ध किसी विशेष व्यक्ति से होता है, वे व्यक्तिगत खाते कहलाते हैं। व्यक्ति का अर्थ स्वयं व्यक्ति, फर्म, कम्पनी और अन्य किसी प्रकार की व्यापारिक संस्था होता है। दूसरे शब्दों में, सब लेनदारों तथा देनदारों के खाते व्यक्तिगत खाते होते हैं। इस दृष्टि से पूंजी (capital) तथा आहरण (drawing) के खाते भी व्यक्तिगत होते हैं क्योंकि इनमें व्यापार के स्वामी से सम्बन्धित लेनदेन लिखे जाते हैं। व्यापार के स्वामी के व्यक्तिगत खाते को पूंजी खाता कहा जाता है। व्यापार के स्वामी द्वारा व्यवसाय से मुद्रा निकालने के लिए आहरण खाता खोला जाता है। इस प्रकार आहरण खाता भी व्यक्तिगत खाता होता है।

वास्तविक खाते

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वस्तुओं और सम्पत्ति के खाते वास्तविक खाते कहलाते हैं। इन खातों को वास्तविक इसलिए कहा जाता है कि इनमें वर्णित वस्तुएं, विशेष सम्पत्ति के रूप में व्यापार में प्रयोग की जाती है। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें बेचकर व्यापारी अपनी पूंजी को धन के रूप में परिवर्तित कर सकता है। वास्तविक खाते आर्थिक चिट्ठे में सम्पत्ति की तरह दिखाये जाते हैं। जैसे मशीन, भवन, माल, यन्त्र, फर्नीचर, रोकड व बैंक आदि के वास्तविक खाते होते हैं।

नाममात्र के खाते

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इन खातों को अवास्तविक खाते भी कहते हैं। व्यापार में अनेक खर्च की मदें, आय की मदें तथा लाभ अथवा हानि की मदें होती हैं। इन सबके लिए अलग-अलग खाते बनते हैं जिनको ‘नाममात्र’ के खाते कहते हैं। व्यक्तिगत अथवा वास्तविक खातों की तरह इनका कोई मूर्त आधार नहीं होता। उदाहरण के लिए वेतन, मजदूरी, कमीशन, ब्याज इत्यादि के खाते नाममात्र के खाते होते हैं।

खाते के भाग

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प्रत्येक लेनदेन के दो पक्ष होते हैं। ऋणी या डेबिट पक्ष और धनी या क्रेडिट पक्ष। इस कारण उसका लेखा लिखने के लिए प्रत्येक खाते के दो भाग होते हैं। बायें हाथ की ओर भाग ‘ऋणी पक्ष’ (डेबिट साइड) होता है और दाहिने हाथ की ओर का भाग ‘धनी पक्ष’ (क्रेडिट साइड) होता है।

खातों को डेबिट या क्रेडिट करना - जब किसी लेन-देन में कोई खाता ‘लेन’ पक्ष होता है अर्थात् उसको लाभ प्राप्त होता है तब उस खातो को डेबिट किया जाता है। डेबिट करने का मतलब यह है कि खाते के ऋणी (डेबिट) भाग (बांये हाथ वाले भाग) में लेनदेन का लेखा होगा। इसी प्रकार जब कोई खाता लेनदेन में देन पक्ष होता है अर्थात् उसके द्वारा कुछ लाभ किसी को होता है, तब उस खाते को क्रेडिट किया जाता है। अर्थात् उस खाते के क्रेडिट भाग में लेनदेन का लेखा किया जाएगा। प्रत्येक लेनदेन में इस तरह एक खाता (डेबिट) तथा दूसरा खाता क्रेडिट किया जाता है। डेबिट (डेबिट) खाते में डेबिट की ओर लेखा तथा क्रेडिट खाते में क्रेडिट की ओर लेखा होता है। क्रेडिट तथा डेबिट लेखा दोहरे लेखे की प्रणाली के अनुसार प्रत्येक लेनदेन के लिए किया जाता है।

उदाहरण - यदि हमने मोहन से 100 रूपये का माल खरीदा है तो इसमें दो खाते हुए- एक माल का दूसरा मोहन का। एक लेखा पाने वाले खाते अर्थात् माल खाते (goods account) में किया जाएगा और दूसरा देने वाले खाते अर्थात मोहन के खाते में किया जाएगा।

इसी कारण इस प्रणाली को दोहरे लेखे की प्रणाली कहा गया है। प्रत्येक लेनदेन में दो लेखे एक डेबिट (डेबिट) और एक क्रेडिट होता है।

लेखक

लेखांकन के सैद्धान्तिक आधार

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  • 1. सामान्यतः स्वीकृत लेखांकन सिद्धान्त : वित्तीय विवरण सामान्यतः स्वीकृत लेखांकन सिद्धान्त के अनुसार तैयार किये जाने चाहिए ताकि इनसे अन्तः अवधि तथा अन्तः कर्म की तुलना की जा सके।
  • 2. लेखांकन सिद्धान्त - किसी व्यवस्था या कार्य के नियंत्रण हेतु प्रतिपादित कोई विचार जिसे व्यावसायिक वर्ग के सदस्यों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। ये मनुष्य द्वारा निर्मित हैं। रसायन एवं भौतिक विज्ञान की तरह सार्वभौमिक नहीं है।
  • 3. लेखाशास्त्र के सिद्धान्त सामान्य रूप से तभी स्वीकृत होते है जब उनमें तीन लक्षण विद्यमान हों, ये हैं - सम्बद्धता, वस्तु परकता एवं सुगमता
  • 4. सत्ता की अवधारणा - व्यवसाय का उसके स्वामियों तथा प्रबंधकों से स्वतंत्र एवं पृथक अस्तित्व होता है। अतः व्यवसाय का स्वामी भी पूँजी के लिए व्यवसाय का लेनदार माना जाता है। व्यवसाय के स्वामी का पृथक् अस्तित्व माना जाता है। लाभों का एक भाग जो स्वामी के हिस्से में आता है देय होता है और चालू दायित्व का।
  • 5. मुद्रा माप संबंधी अवधारणा - लेखांकन मौद्रिक व्यवहारों से संबंधित है अमौद्रिक घटनाएँ जैसे - कर्मचारियों को ईमानदारी, स्वामिभक्ति, कर्तव्यनिष्ठा आदि का लेखांकन नहीं किया जा सकता।
  • 6. निरन्तरता की अवधारणा - यह बताती है कि व्यवसाय दीर्घकाल तक निरन्तर चलता रहेगा, जब तक कि कोई विपरीत कारण न हो। अमूर्त सम्पत्तियों तथा आस्थिगत व्ययों का उनकी उपयोगिता के आधार पर प्रतिवर्ष अपलेखन, स्थायी सम्पत्तियों को चिट्ठे में अपलिखित मूल्य पर इसी आधार पर दिखाया जाता है।
  • 7. लागत अवधारणा - निरन्तर की अवधारणा पर आधारित है जो यह बताती है कि सम्पत्तियों को उनके लागत मूल्य पर दर्ज किया जाता है।
  • 8. लेखांकन की दोहरा लेखा प्रणाली द्विपक्ष अवधारणा पर आधारित है जिसके अनुसार प्रत्येक डेबिट के बराबर क्रेडिट होता है। लेखांकन समीकरण द्विपक्ष अवधारणा पर आधारित है।
  • 9. व्यवसाय में आगत उस अवधि में प्राप्त मानी जाती है जब ग्राहक के मूल्य के बदले माल या सेवायें दी जाती है। किन्तु दीर्घकालीन ठेकों, सोने की खानों, जहाँ आय प्राप्ति अनिश्चित हो, में आगम सुपुर्दगी देने पर नहीं मानी जाती।
  • 10. उपार्जन अवधारणा के अनुसार व्यवसाय में आय-व्यय के मदों का लेखा देय आधार पर किया जाता है - जो कि उस अवधि से संबंधित हो।
  • 11. लेखा अवधि की अवधारणा के आधार पर प्रत्येक लेखा अवधि के अन्त में वर्ष भर किये गये व्यवहारों के आधार पर लाभ-हानि खाता तथा चिट्ठा बनाया जाता है। सत्ता और मुद्रा मापन लेखांकन की मौलिक अवधारणाएँ है।
  • 12. मिलान की अवधारणा उपार्जन की अवधारणा पर आधारित है।
  • 13. कालबद्धता की संकल्पना को मिलान की अवधारणा लागू करते समय अपनाया जाता है।
  • 14. लेखाकार को चाहिए कि वित्तीय विवरण पत्र पूर्णतया सत्य हो तथा समस्त महत्वपूर्ण सूचनाओं को इनमें प्रदर्शित किया गया हो। इसी आधार पर कम्पनयिँ पिछले वर्षां के तुलनात्मक आँकड़े अनुसूचियों के रूप में विस्तृत सूचनाएँ आदि शामिल करती है।
  • 15. लेखापाल को उन्हीं तथ्यों एव घटनाओं को वार्षिक लेखों में प्रदर्शित करना चाहिए जो कि महत्वपूर्ण हों। सारहीन तथ्यों की उपेक्षा करनी चाहिए।
  • 16. रूढ़िवादिता ( अनुदारवादिता) - के अनुसार एक लेखाकार को भावी संभाव्य सभी हानियों की व्यवस्था करनी चाहिए तथा भावी आय व लाभों को शामिल न करें। इस संकल्पना के आधार पर लेखाकार - देनदारों पर डूबत एवं संदिग्ध ऋणों व बट्टे के लिए आयोजन, स्टॉक का लागत मूल्य व बाजार मूल्य में से कम पर मूल्यांकन लेनदारों पर बट्टे के लिए आयोजन न करना, अमूर्त सम्पत्तियों का अपलेखन, मूल्य हृस का की क्रमागत हृस विधि को अपनाना, ऋणपत्रों के निर्गमन के समय ही शोधन पर देय प्रीमियम का प्रावधान करना, आदि करता है।
  • 17. महत्वपूर्णता या सारता एक व्यक्तिनिष्ठ मद है।
  • 18. लेखांकन की तीन आधारभूत मान्यताएँ है - सुदीर्घ संस्थान, सततता, उपार्जन।

टिप्पणियाँ और संदर्भ

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  1. बैरी इलियट और जॅमी इलियट: फाइनेंशियल अकाउंटिंग एण्ड रिपोर्टिंग, परेंटाइस हॉल, लंदन 2004, ISBN 0-273-70364-1, पृष्ठ 3, Books।Google।co।uk[मृत कड़ियाँ]
  2. Peggy Bishop Lane on Why Accounting Is the Language of Business, Knowledge @ Wharton High School, September 23, 2013, retrieved 25 Deember 2013
  3. गुडइयर, लॉयड अर्नेस्ट: प्रिंसिपल्स ऑफ अकाउंटेंसी, गुडइयर-मार्शल प्रकाशन कंपनी, सेडर रैपिड्स, लोवा, 1913, पृष्ठ 7 Archive।org[मृत कड़ियाँ]

बाहरी कड़ियाँ

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