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तुलसीदास

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गोस्वामी तुलसीदास

तुलसीदास रामचरितमानस की रचना करते हुए
जन्म रामबोला
११ अगस्त १५११ (सम्वत्- 1568 वि०, श्रावण शुक्ल सप्तमी, शुक्रवार)[1]
सोरों शूकरक्षेत्र, जनपद- कासगंज, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु ३० अगस्त १६२३ (सम्वत १६८० वि०, श्रावण शुक्ल सप्तमी, गुरुवार)
वाराणसी
गुरु/शिक्षक शूकरक्षेत्र सोरों निवासी पंडित नृसिंह चौधरी
खिताब/सम्मान गोस्वामी, अभिनववाल्मीकि, इत्यादि
साहित्यिक कार्य रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, कवितावली, हनुमान चालीसा, वैराग्य सन्दीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, इत्यादि
कथन सीयराममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥
(रामचरितमानस १.८.२)
धर्म हिन्दू
दर्शन विशिष्टद्वैत

गोस्वामी तुलसीदास (११ अगस्त १५११ - १६२३) मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के महान रामभक्त इव कवि थे। उन्होने रामचरितमानस और हनुमान चालीसा जैसे विश्व प्रसिद्ध ग्रंथो की रचना की है। इन्हें आदिकाव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है।

श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। ब्रजावधी में रचित श्रीरामचरितमानस लोकग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद ब्रजभाषा में रचित विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में ४६वाँ स्थान दिया गया। तुलसीदास जी रामानंद संप्रदाय के अनुयायी थे।[2]

जन्म

तुलसीदास का जन्म हिंदू कैलेंडर माह श्रावण (जुलाई-अगस्त) के उज्ज्वल आधे, शुक्ल पक्ष के सातवें दिन सप्तमी (११ अगस्त १५११) उत्तर प्रदेश के सोरों गांव मे हुआ था। यद्यपि उनके जन्मस्थान के रूप में तीन स्थानों का उल्लेख किया गया है, २०१२ में सोरों को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आधिकारिक रूप से तुलसी दास का जन्मस्थान घोषित किया गया था। उनके माता-पिता हुलसी और आत्माराम दुबे थे। अधिकांश स्रोत उन्हें भारद्वाज गोत्र (वंश) के सनाढ्य ब्राह्मण के रूप में पहचानते हैं।

तुलसीदास और सर जॉर्ज ग्रियर्सन उनके जन्म का वर्ष विक्रम १५६८ (१५११ ई।) बताते हैं। इन जीवनीकारों में रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, रामगुलाम द्विवेदी, जेम्स लोचटेफेल्ड, स्वामी शिवानंद और अन्य शामिल हैं। वर्ष 1497 भारत में और लोकप्रिय संस्कृति में कई वर्तमान जीवनियों में दिखाई देता है। इस वर्ष से असहमत जीवनीकार तर्क देते हैं कि इससे तुलसीदास का जीवनकाल 126 वर्ष के बराबर हो जाता है, जो उनके विचार में असंभव नहीं तो कम नहीं है। इसके विपरीत, रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि तुलसीदास जैसे महात्मा ( महान आत्मा ) के लिए 126 वर्ष की आयु असंभव नहीं है। भारत सरकार और प्रांतीय सरकारों ने लोकप्रिय संस्कृति में तुलसीदास के जन्म के वर्ष के अनुसार, वर्ष 2011 ई। में तुलसीदास की 500वीं जयंती मनाई।

बचपन

किंवदंती है कि तुलसीदास का जन्म बारह महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था, जन्म के समय उनके मुंह में सभी बत्तीस दांत थे, उनका स्वास्थ्य और रूप पांच साल के लड़के जैसा था, और वह अपने जन्म के समय रोए नहीं बल्कि राम का उच्चारण किया । इसलिए उनका नाम रामबोला (शाब्दिक रूप से, वह जिसने राम का उच्चारण किया ) रखा, जैसा कि तुलसीदास स्वयं विनय पत्रिका में बताते हैं । मूल गोसाईं चरित के अनुसार , उनका जन्म अभुक्तमूल नक्षत्र के तहत हुआ था, जो हिंदू ज्योतिष के अनुसार पिता के जीवन के लिए तत्काल खतरा पैदा करता है। उनके जन्म के समय अशुभ घटनाओं के कारण, उन्हें चौथी रात को उनके माता-पिता ने त्याग दिया, अपनी रचनाओं कवितावली और विनयपत्रिका में , तुलसीदास ने अपने माता-पिता द्वारा अशुभ ज्योतिषीय विन्यास के कारण जन्म के बाद उन्हें त्यागने की पुष्टि की है।

चुनिया बच्चे को अपने गांव हरिपुर ले गई और साढ़े पांच साल तक उसकी देखभाल की, जिसके बाद उसकी मृत्यु हो गई। रामबोला को एक दरिद्र अनाथ के रूप में खुद की देखभाल करने के लिए छोड़ दिया गया था, और वह भिक्षा मांगते हुए दर-दर भटकता रहा। ऐसा माना जाता है कि देवी पार्वती ने एक ब्राह्मण महिला का रूप धारण किया और रामबोला को हर दिन भोजन कराया। या वैकल्पिक रूप से, अनंताचार्य के शिष्य। रामबोला को तुलसीदास के नए नाम के साथ विरक्त दीक्षा (वैरागी दीक्षा) दी गई । तुलसीदास ने विनयपत्रिका के एक अंश में अपने गुरु के साथ पहली मुलाकात के दौरान हुए संवाद का वर्णन किया है । जब वे सात साल के थे, तो उनका उपनयन ("पवित्र धागा समारोह") माघ (जनवरी-फरवरी) के महीने के शुक्ल पक्ष के पांचवें दिन अयोध्या में नरहरिदास द्वारा किया गया था , जो राम से संबंधित एक तीर्थ स्थल है। तुलसीदास ने अयोध्या में अपनी शिक्षा शुरू की। कुछ समय बाद, नरहरिदास उन्हें एक विशेष वराह क्षेत्र सोरों ( वराह को समर्पित मंदिर वाला एक पवित्र स्थान - विष्णु का वराह अवतार) ले गए, जहाँ उन्होंने पहली बार तुलसीदास को रामायण सुनाई। तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसका उल्लेख किया है।

देवनागरी

मय पुनि निज गुर सना सुनि कथा सो सूकरखेता। समुझि नहिं तासा बालापना तब अति रहेउ॥

और फिर, मैंने वही कथा अपने गुरु से सूकरखेत (वराह क्षेत्र) सोरों में सुनी । मुझे तब यह समझ में नहीं आया, क्योंकि मैं बचपन में पूरी तरह से ज्ञानहीन था। रामचरितमानस 1.30

अधिकांश लेखक तुलसीदास द्वारा संदर्भित वराह क्षेत्र को सूकरक्षेत्र के साथ आधुनिक कासगंज में सोरों वराह क्षेत्र के रूप में पहचानते हैं , तुलसीदास ने रामचरितमानस में आगे उल्लेख किया है कि उनके गुरु ने उन्हें बार-बार रामायण सुनाई, जिससे उन्हें कुछ हद तक समझ में आया।

तुलसीदास बाद में पवित्र शहर वाराणसी आए और गुरु शेष सनातन से 15-16 वर्षों की अवधि में संस्कृत व्याकरण , चार वेद , छह वेदांग , ज्योतिष और हिंदू दर्शन के छह विद्यालयों का अध्ययन किया, जो वाराणसी के पंचगंगा घाट पर स्थित थे। शेष सनातन नरहरिदास के मित्र और साहित्य और दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान थे।

विवाह और गृह त्याग

तुलसीदास की वैवाहिक स्थिति के बारे में दो विपरीत विचार हैं। तुलसी प्रकाश और कुछ अन्य कार्यों के अनुसार , तुलसीदास का विवाह विक्रम संवत 1604 (1561 ई।) में कार्तिक माह (अक्टूबर-नवंबर) के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को रत्नावली से हुआ था। रत्नावली, गोंडा जिले के नारायणपुर गाँव के पराशर गोत्र के ब्राह्मण दीनबंधु पाठक की पुत्री थीं । उनका तारक नाम का एक पुत्र था, जो बचपन में ही मर गया था। एक बार जब तुलसीदास हनुमान मंदिर गए थे, रत्नावली अपने भाई के साथ अपने पिता के घर गईं। जब तुलसीदास को यह पता चला, तो वे अपनी पत्नी से मिलने के लिए रात में सरजू नदी तैरकर पार गए। रत्नावली ने इसके लिए तुलसीदास को डांटा, तुलसीदास ने उसे तुरंत छोड़ दिया और पवित्र शहर प्रयाग के लिए प्रस्थान किया । यहाँ, उन्होंने गृहस्थ (गृहस्थ जीवन) अवस्था को त्याग दिया और एक साधु (तपस्वी) बन गए।

कुछ लेखक तुलसीदास के विवाह प्रसंग को बाद में जोड़ा गया मानते हैं और कहते हैं कि वे ब्रह्मचारी थे। इनमें रामभद्राचार्य भी शामिल हैं, जो विनयपत्रिका और हनुमान बाहुक में दो श्लोकों का हवाला देते हैं कि तुलसीदास ने कभी विवाह नहीं किया और बचपन से ही साधु थे।

भगवान श्री राम जी से भेंट

कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।
तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

संस्कृत में पद्य-रचना

तुलसीदास जी

संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- "तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।

रामचरितमानस की रचना

संवत्‌ १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।

इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्‌" की आवाज भी कानों से सुनी।

इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।

इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-"काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।"

पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।

मृत्यु

गंगा नदी किनारे पर स्थित तुलसीदासजी का जर्जरित निवास स्थान

तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।

संवत्‌ १६८० में श्रावण शुक्ल सप्तमी को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर का परित्याग किया।

तुलसी-स्तवन

तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्हें कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान सोरों के तुलसीपीठ में श्रीरामचरितमानस के बालकाण्ड व अरण्यकांड की एक-एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है।

रचनाएँ

अपने ११२ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं -

गीतावली, कृष्ण-गीतावली, रामचरितमानस, पार्वती-मंगल, विनय-पत्रिका, जानकी-मंगल, रामललानहछू, दोहावली, वैराग्यसंदीपनी, रामाज्ञा-प्रश्न, सतसई, बरवै रामायण, कवितावली, हनुमानबाहुक

इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।

लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।

रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं :

  • रामचरितमानस
  • रामललानहछू
  • वैराग्य-संदीपनी
  • बरवै रामायण
  • पार्वती-मंगल
  • जानकी-मंगल
  • रामाज्ञाप्रश्न
  • दोहावली

  • कवितावली
  • गीतावली
  • श्रीकृष्ण-गीतावली
  • विनय-पत्रिका
  • सतसई
  • छंदावली रामायण
  • कुंडलिया रामायण
  • राम शलाका

  • संकट मोचन
  • करखा रामायण
  • रोला रामायण
  • झूलना
  • छप्पय रामायण
  • कवित्त रामायण
  • कलिधर्माधर्म निरूपण
  • हनुमान चालीसा

'एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स'[3] में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।

कुछ ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण

रामललानहछू

यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं।

गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो।
सोभित दूलह राम सीस, पर आंचर हो।।

वैराग्य संदीपनी

वैराग्य संदीपनी[4] को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रवली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते हैं। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा पेश है -

को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत।
जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।

बरवै रामायण

विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है।[5]

पार्वती-मंगल

यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरस है। ""जगत मातु पितु संभु भवानी"" की श्रृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है। लोक रीति इतनी यथास्थिति से चित्रित हुई है कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है। व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसीलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है -

प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि।
मंगल हार रचेउ कवि मति मृगलोचनि।।

जानकी-मंगल

विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है। पर इसमें भी क्षेपक है।

पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।
डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।।
राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि।
चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।।
रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।।

तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है।

रामाज्ञा प्रश्न

यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते हैं। इसमें कथा-श्रृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण> के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है।

दोहावली

दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी श्रृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, पर रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है।

कवितावली

कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा।

गीतावली

गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है[6]। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है। इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा - संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है -

कैकेयी जौ लौं जियत रही।
तौ लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।।
मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही।
सीय लखन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही।।
लोक-बेद-मरजाद दोष गुन गति चित चखन चही।
तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।।

इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है -

भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ।
परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।।
पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ।
होइ हित केहि भांति, नित सुविचारु नहिं चित चाउ।।

श्रीकृष्ण गीतावली

श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं।[7]

हनुमानबाहुक

यह गोस्वामी जी की हनुमत-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।

तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था। उनक आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंब है।

दोहे

तुलसीदास के दोहे[8]

दिएँ पीठि पाछें लगै सनमुख होत पराइ। तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गँवाइ।।

अर्थ – तुलसीदास[9] जी कहते हैं संपत्ति शरीर की छाया के समान है । इसको पीठ देकर चलने से यह पीछे पीछे चलता है, और सामने होकर चलने से दूर भाग जाता है । ( जो धन से मुँह मोड लेता है, धन की नदी उसके पीछे पीछे बहती चली आती है और जो धन के लिए सदा ललचाता रहता है, उसे सपने में पैसा कभी नहीं मिलता ) इस बात को समझकर घर मे ही दिन बिताओं ।


तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम । सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम ।।

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि आशा देवी नाम की एक अदभुत देवी है, यह सेवा करने पर दुख देता है और विमुख होने पर सुख देता है ।


सोई सेंवर तेइ सुवा सेवत सदा बसंत । तुलसी महिमा मोह की सुनत सराहत संत ।।

अर्थ - तुलसीदास कहते है वही सेमलता पेड़ है और वहीं तोते है तो भी मोहवश वसंत ऋतु आने पर सदा उस पर मँडराये रहते है । इस बात को सुनकर संत लोग भी मोह की महिमा की सराहना करते हैं ।


ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लोभ बिडंबना कीनिह न एहिं संसार ॥

अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पण्डित और गुणों का धाम इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य हैं, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो ॥


ब्यापी रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड । सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ।।

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि माया की प्रचंड सेना संसार भर मे फैल रहा हैं कामादि(काम, क्रोध, मद, मोह, और मत्सर) वीर इस सेना के सेनापति हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड उसके योद्धा है ।


तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग । सबसे हस बोलिए नदी नाव संजोग ॥

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि इस संसार मे कई प्रकार के लोग रहते है । जिनका व्यवहार और स्वभाव अलग अलग होता है । आप सभी से मिलिए और बात करिए । जैसे नाव नदी से दोस्ती कर अपने मार्ग को पार कर लेता है । वैसे आप अपने अच्छे व्यवहार से इस भव सागर को पार कर लेंगे .


जनमानस पर प्रभाव

अपने समय से ही तुलसीदास को भारतीय और पश्चिमी विद्वानों द्वारा उनकी कविता और हिंदू समाज पर उनके प्रभाव के लिए समान रूप से सराहा जाता रहा है। तुलसीदास ने अपनी रचना कवितावली में उल्लेख किया है कि उन्हें दुनिया में एक महान ऋषि माना जाता था। मधुसूदन सरस्वती , वाराणसी में स्थित अद्वैत वेदांत परंपरा के सबसे प्रशंसित दार्शनिकों में से एक और अद्वैतसिद्धि के रचयिता , तुलसीदास के समकालीन थे। रामचरितमानस को पढ़कर, वे चकित हो गए और महाकाव्य और रचयिता की प्रशंसा में निम्नलिखित संस्कृत छंद की रचना की।

आनन्दकानने कश्चिज्जङगमस्तुलसीतरुः। कविता मंजरी यस्य रामभ्रमरभुषिता ॥ आनंदकानन कश्चिज्जंगमस्तुलसीतरु:। कविता मंजरी यस्य रामभ्रमरभूषिता ॥

इस वाराणसी (आनन्दकानन) स्थान में एक चलता-फिरता तुलसी का पौधा (अर्थात् तुलसीदास) है, जिसके फूलों की टहनी रूपी [यह] काव्य (अर्थात् रामचरितमानस) सदैव राम रूपी भौंरे से सुशोभित रहती है।

कृष्ण के भक्त और तुलसीदास के समकालीन सूर ने रामचरितमानस और तुलसीदास की प्रशंसा करते हुए आठ पंक्तियों के छंद में तुलसीदास को संत शिरोमणि (पवित्र पुरुषों में सर्वोच्च रत्न) कहा। अब्दुर रहीम खानखाना , प्रसिद्ध मुस्लिम कवि जो मुगल सम्राट अकबर के दरबार में नवरत्नों (नौ रत्नों) में से एक थे , तुलसीदास के निजी मित्र थे। रहीम ने तुलसीदास के रामचरितमानस का वर्णन करते हुए निम्नलिखित दोहे की रचना की -

रामचरितमानसमल बिमल संतनजीवन प्राण। युवावन को बेद सम जवनहिं प्रगट कुरान ॥ रामचरितमानस बिमला संतानजीवन प्राण:। हिंदुवाना को बेदा समा जवनाहिं प्रगट कुराना ॥

पवित्र रामचरितमानस संतों के जीवन की सांस है। यह हिंदुओं के लिए वेदों के समान है, और मुसलमानों के लिए यह कुरान के समान है।

तुलसीदास के समकालीन अकबर की जीवनी के लेखक इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ ने तुलसीदास को "भारत में अपने युग का सबसे महान व्यक्ति और स्वयं अकबर से भी महान" कहा था। इंडोलॉजिस्ट और भाषाविद् सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने तुलसीदास को " बुद्ध के बाद लोगों का सबसे बड़ा नेता " और "आधुनिक समय का सबसे महान भारतीय लेखक" कहा; और महाकाव्य रामचरितमानस को "किसी भी युग के सबसे महान कवि के योग्य" कहा। रामचरितमानस को उन्नीसवीं सदी के दोनों इंडोलॉजिस्टों ने "उत्तर भारत की बाइबिल" कहा है, जिनमें राल्फ ग्रिफिथ भी शामिल हैं , जिन्होंने चार वेदों और वाल्मीकि की रामायण का अंग्रेजी में अनुवाद किया हिंदी कवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ने तुलसीदास को "हिंदी की लता में खिलते हुए, विश्व की कविता के बगीचे में फूलों की सबसे सुगंधित शाखा" कहा है। निराला तुलसीदास को रवींद्रनाथ टैगोर से भी बड़ा कवि मानते थे, और कालिदास , व्यास , वाल्मीकि, होमर , जोहान वोल्फगैंग वॉन गोएथे और विलियम शेक्सपियर के समान श्रेणी का मानते थे । हिंदी साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि तुलसीदास ने "उत्तर भारत में धर्म के राज्य पर एक संप्रभु शासन " स्थापित किया, जो बुद्ध के प्रभाव के बराबर था। लव एंड गॉड और सोशल ड्यूटी इन रामचरितमानस पुस्तक के लेखक एडमर जे। बेबिन्यू कहते हैं कि अगर तुलसीदास यूरोप या अमेरिका में पैदा हुए होते पुरातत्ववेत्ता एफआर अल्चिन , जिन्होंने विनयपत्रिका और कवितावली का अंग्रेजी में अनुवाद किया, के शब्दों में , "उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से के लोग तुलसीदास के लिए उसी तरह का सम्मान पाते हैं, जैसा कि बाइबल के मूल जर्मन भाषा में अनुवादक लूथर को मिलता था"। अल्चिन ने यह भी उल्लेख किया है कि रामचरितमानस की तुलना न केवल वाल्मीकि की रामायण से की गई है, बल्कि स्वयं वेदों , भगवद गीता , कुरान और बाइबल से भी की गई है । अर्नेस्ट वुड ने अपनी रचना एन इंग्लिशमैन डिफेंड्स मदर इंडिया में माना है रामचरितमानस को "लैटिन और ग्रीक भाषाओं की सर्वश्रेष्ठ पुस्तकों से श्रेष्ठ" माना जाता है। तुलसीदास को भक्तशिरोमणि भी कहा जाता है , जिसका अर्थ है भक्तों में सर्वोच्च रत्न।

विशेष रूप से उनकी कविता के बारे में, तुलसीदास को कई आलोचकों द्वारा "रूपक का सम्राट" और उपमाओं में पारंगत कहा गया है। हिंदी कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' ने तुलसीदास के बारे में कहा -

कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला। कविता कराके तुलसी न लेसे कविता कराके तुलसी की कला।

तुलसीदास काव्य रचना करके नहीं चमके, बल्कि काव्य स्वयं तुलसीदास की कला पाकर चमका।

हिंदी कवि महादेवी वर्मा ने तुलसीदास पर टिप्पणी करते हुए कहा कि अशांत मध्य युग में भारत को तुलसीदास से ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने आगे कहा कि आज जैसा भारतीय समाज मौजूद है, वह तुलसीदास द्वारा निर्मित एक इमारत है, और आज हम जिस राम को जानते हैं, वह तुलसीदास के राम हैं।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ

  1. अविनाशराय ब्रह्मभट्ट द्वारा रचित "तुलसी प्रकाश"
  2. "Top 100 famous epics of the World" [विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ प्रसिद्ध काव्य] (अंग्रेज़ी में). मूल से 14 दिसंबर 2013 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 दिसम्बर 2013.
  3. Hastings, J.; Selbie, J.A.; Gray, L.H. (1910). Encyclopædia of Religion and Ethics: Arthur-Bunyan. Encyclopædia of Religion and Ethics (अंग्रेजी भाषा में). T. & T. Clark. अभिगमन तिथि २७ मार्च २०२०.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  4. Dāsa, Ś.; Baṛathvāla, P. (1952). Gosvami Tulasidasa (पुर्तगाली में). Hindustani Ekedemi. अभिगमन तिथि २७ मार्च २०२०.
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  6. Tulsidas, G. Gitavali (एस्टोनियाई में). CreateSpace Independent Publishing Platform. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-9840-2505-0. अभिगमन तिथि २७ मार्च २०२०.
  7. "श्रीकृष्ण गीतावली: Sri Krishna Gitavali". Exotic India Art. अभिगमन तिथि २७ मार्च २०२०. |title= में 6 स्थान पर C1 control character (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  8. "तुलसीदास के दोहे". मूल से 25 मई 2021 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2021-09-16.
  9. "The Ramayan of Tulsi Das or the Bible of Northern India". INDIAN CULTURE (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2021-09-16.

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