पौ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
[सम्पादन]शब्दसागर
[सम्पादन]पौ ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ प्रपा, प्रा॰ पवा] पौसाला । पौसला । प्याऊ ।
पौ ^२ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ पाद, प्रा॰ पाय, पवा (=किरन)या सं॰ प्रभा] किरन । प्रकाश की रेखा । ज्योति । मुहा॰—पो फटना = सबेरे का उजाला दिखाई पड़ना । सबेरा होना । तड़का होना । उ॰—पौ फाटी, पागर हुआ, जागे जीया जून । सब काहू को देत है चोंच समाना चून ।— कबीर (शब्द॰) ।
पौ ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ पाद, प्रा॰ पाय, पाव]
१. पैर । उ॰—पौ परि बारहि बार मनाएउ । सिर सौं खेलि पैंत जिउ लाएउ ।—जायसी ग्रं॰, पृ॰ १३७ ।
२. जड़ । मूल । उ॰—पौ बिनु पत्र, करह बिनु तूबा, बिनु जिब्भा गुन गावै ।—कबीर (शब्द॰) ।
पौ ^४ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ पद, प्रा॰ पव (=कदम, डंग)] पाँसे की एक चाल या दावँ । विशेष—फेंकने पर जब ताक आता है दस, पचीस, तीस आते हैं तब पौ होती है । मुहा॰—पौ बारह पड़ना = जीत का दाँव पड़ना । पौ बारह होना =(१) जीत का दाँव पड़ना । (२) जीत होना । जश्न आना । भाग्य खुलना । लाभ का खुब अवसर मिलना । जैसे,—यहाँ तो सदा पो बारह हैं ।