Papers by Acharya Shilak Ram
Chintan Research Journal (ISSN :2229-7227), 2012
संदेह एवं अविश्वास प्रेम में नहीं होता अपितु वासना में होता है । प्रेम
तो अपने भीतर की शुद्धि की... more संदेह एवं अविश्वास प्रेम में नहीं होता अपितु वासना में होता है । प्रेम
तो अपने भीतर की शुद्धि की सुगंध है । उसमें दूसरे से कोई
संबंध नहीं होता । प्रेम में धोखा भी नहीं दिया जा सकता । प्रेम अपने
भीतर की क्रांति है । जो कुछ भी आजकल के युवक एवं युवतियां कर
रहे है, वह सब प्रेम नहीं है अपितु वासना है, उपरी आकर्षण है । समीप
यदि ये ऐसे नाममात्र के प्रेमी रह लें तो सब प्रेम आदि गायब हो जाएंगे।
इसीलिए प्रेम’विवाह सफल नहीं होते हैं। प्रेम के नाम पर धोखा,
अविश्वास, शोषण आदि ही चल रहे हैं । दूर के ढोल सुहावने - समीप
आते ही सब पोल-पट्टी खुल जाती है । किसी के रूप-यौवन को
देखकर उसकी तरफ आकर्षित होना गलत नहीं है लेकिन यह वासना एवं
कामुकता है, प्रेम नहीं । यह सब प्रेम के पथ का एक पड़ाव हो सकता
है लेकिन प्रेम नहीं । प्रेम में शिकायतें भी नहीं होती अपितु यह सब
तो वासना में ही होता है । प्रेम किसी को गुलामी में भी नहीं रखता
है । प्रेम तो परम आजादी है ।
Chintan Research Journal (ISSN : 2229-7227), 2012
सृष्टि के प्रारंभ से ही अनेकानेक ध्यान की विधियों की खोज हिंदू आर्य ऋषियों
ने ही है- उन्हीं विधिय... more सृष्टि के प्रारंभ से ही अनेकानेक ध्यान की विधियों की खोज हिंदू आर्य ऋषियों
ने ही है- उन्हीं विधियों को संतमत ने भी अपनाया है । कुछ अंग्रेजी पढे-लिखे
सिरफिरे विचारक भारतीय संस्कृति को हीन सिद्ध करने की कुत्सित मनोवृत्ति
के कारण कुछ का कुछ पागल प्रलाप करने लगते है, लेकिन इसमें सत्यांश कुछ
भी नहीं है । मूलतः ‘सूरत शब्दयोग’ नामक साधना की विधि सनातन भारतीय
योग-परंपरा में सनातन से चलती आई है । पांच या छह शदी पूर्व संतों ने
इसका विकास किया या इसका आविष्कार किया - यह तथ्य गलत है । जप,
ध्वनि व प्रकाश के सम्मिलित रूप से बनी यह विधि भारतवर्ष में सदैव से रही
है। इस संबंध में यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि समकालीन
युग में इस विधि का खूब दुरूपयोग हो रहा है । करोड़ों व्यक्ति इस
विधि से गुरूओं ने दीक्षित कर रखे हैं, जो या तो इसका दुरूपयोग अनिद्रा
की व्याधि को दूर करने हेतु करते हैं या अपने अहम् के पोषण हेतु करते
हैं या इसके माध्यम से अपना कोई व्यवसाय वगैरा चमकाते हैं । जिन विचारकों
ने यह सिद्ध किया है कि संतमार्ग अलग से कोई मार्ग है तथा उनकी अलग
से कोई ध्यान की विधि है उनका उद्देश्य इसको सिद्ध करने के माध्यम से अपने
आपको एक विचारक, समीक्षक या दार्शनिक के रूप में स्थापित करना अधिक
रहा है तथा संतमार्ग की साधना से साधकों का कल्याण मामूली बात ।
Pramana Research Journal (ISSN : 2249-2976), 2013
विज्ञान का जीवन यानि बाहरी जीवन अधूरा जीवन है । भीतर भी तो झांकें।
अहम् को तो बहुत देख लिया, अब अ... more विज्ञान का जीवन यानि बाहरी जीवन अधूरा जीवन है । भीतर भी तो झांकें।
अहम् को तो बहुत देख लिया, अब अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी
अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक
सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की
अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसको सीढ़ी बनाएं । विज्ञान
भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है । वैज्ञानिक होकर
अवैज्ञानिक बातें करना तथा उसी के अनुरूप अपनी जीवन-शैली बनाए रखना मूढ़ता
का ही परिचायक है । विज्ञान से जो लाभ मिल सकते हैं उन्हें ग्रहण करें परंतु
वहीं पर रूक न जाएं । उससे आगे भी जाएं । दर्शन-शास्त्र विषय की भी सुनें।
उसके अनुसार भी जीवन को जीएं । जितने लाभ विज्ञान से मिलते है उससे ज्यादा
लाभ दर्शन-शास्त्र से मिल सकते हैं । भारतवर्ष ने इस तरह की व्यवस्था को
लाखों वर्ष तक स्वीकारा भी है तथा खोया भी है । शरीर से ‘शरीरी’ में जाएं।
बुद्धि से ‘हृदय’ में गति करे । पदार्थ से ‘चेतना’ में प्रवेश करें । विषय से
‘विषयी’ की दिशा में भी जाएं ।
Research Expo International Multidisciplinary Research Journal (ISSN : 2250 - 1630 ), 2012
Chintan Research Journal (ISSN : : 2229-7227), 2013
हमारी सनातन आर्य वैदिक हिंदू संस्कृति में नैतिकता, सदाचार, चरित्र एवं
जीवन-मूल्यों का सर्वोपरि मह... more हमारी सनातन आर्य वैदिक हिंदू संस्कृति में नैतिकता, सदाचार, चरित्र एवं
जीवन-मूल्यों का सर्वोपरि महत्त्व है । इसके बिना एक स्थिर एवं प्रगतिशील समाज
की कल्पना भी नहीं की जा सकती । महर्षि मनु का यह उद्घोष कि ‘स्व स्व
चरित्र...’ यानि कि अपने-अपने चरित्र, आचरण, जीवन-शैली एवं आहार-विहार को
शुद्ध व सृजनात्मक बनाने हेतु लोग हमारे भारतवर्ष में सदैव से आते रहे हैं ।
इस संदर्भ में यह सोचनीय हो जाता है कि हमारे जीवन का प्रत्येक पक्ष भ्रष्ट,
दुषित एवं पतनशील हो गया है । कहां हम अन्य राष्ट्रों को चरित्र एवं
आचार-विचार की शिक्षा दिया करते थे और कहां हम आज सर्वाधिक भ्रष्ट,
अनैतिक, चरित्रहीन एवं असहाय हो गए हैं। क्यों हो गए हैं हम ऐसे? नेता लोगों
ने तो इस पर विचार करना ही छोड़ दिया है । वे तो हमारी इस धरा पर एक
तरह से असत्य, बुराई, पतन, चरित्रहीनता एवं अनैतिकता का पर्याय सा बन चुके
हैं । लगभग सब ही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे सिद्ध हो रहे हैं ।
Darshan Internation Quarterly Research Journal (ISSN :2320 – 8325), 2013
धर्म-दर्शनशास्त्र के इतिहास के संबंध में जब मैंने ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ के
समकालीन भारतीय एवं पाश्च... more धर्म-दर्शनशास्त्र के इतिहास के संबंध में जब मैंने ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ के
समकालीन भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों यथा वसंत कुमार लाल, रामनाथ
शर्मा, डाॅ॰ वेदप्रकाश वर्मा, डब्ल्यू॰ के॰ राईट, जाॅन निकोलसन, ह्यूम,
कांट, लोत्से, शैलिंग आदि की पुस्तकों का अध्ययन किया तो मालूम हुआ
कि इन लेखकों की सोच एकपक्षीय एवं भेदभावपूर्ण है । पाश्चात्य विचार
यदि धर्म के संबंध में यह बात कि ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ का इतिहास मात्र दो
सदी पुराना है तो उन्हें माफ भी किया जा सकता है परंतु भारतीय विचारक
भी धर्म-दर्शनशास्त्र की पुस्तकों में इस तरह की बातें बतलाते हैं तो
उनकी सोच पर तरस आता है । पाश्चात्य विचारक ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ को
कतई नया विषय यानि कि दो सदी पुराना विषय मानते हैं । इनके अनुसार
दो सदी से पूर्व धर्म-दर्शनशास्त्र नाम का विषय था ही नहीं । यहां पर
भारतीय विचारक इस तरह की बातों को मान्यता देकर अपनी अज्ञानता एवं
पाश्चात्य विचारकों के पिछलग्गूपन का परिचय देते ही हैं इसके साथ-साथ
पाश्चात्य विचारकों की भारतीय धर्म व दर्शनशास्त्र के संबंध में खोजी
प्रवृत्ति की पोल भी खुल जाती है ।
Pramana Research Journal (ISSN : 2249-2976), 2013
हरियाणा राज्य में लोक-काव्य की परंपरा काफी पुरानी हैं। इसका कोई काल
निर्धारित नहीं किया जा सकता। ... more हरियाणा राज्य में लोक-काव्य की परंपरा काफी पुरानी हैं। इसका कोई काल
निर्धारित नहीं किया जा सकता। ग्रामीण परिवेश सदैव से इससे आवेष्टित रहा है।
कोई ऐसा काल नहीं था जब लोक-काव्य न रहा हो। पुस्तकरूप में न आया हो
यह एक अलग बात है। भजन, किस्से, रागनी, कहावतों, लोकोक्तियों व लोकगीतों
की परंपरा हरियाणा में सनातन से विद्यमान रही है। लोकगीत वैसे होते ही वे
हैं जिनके रचयिता का नाम मालूम न हो। हरियाणा राज्य के लोग जब भी प्रभु
भक्ति में मगन होते तो वे अपने भावों की अभिव्यक्ति सुमधुर भजन गाकर करते
थे। पं॰ बस्तीराम, बाजेभगत, पं॰ ईश्वरसिंह, पृथ्वीसिंह बेधड़क, पं॰ लख्मीचंद,
सांगी सुलता आदि के भजन आज भी लोग बड़ै चाव सुनते व गाते हैं। कबीर
व नितानंद के भक्तिमय शब्दों में भी प्रचुरता से हरियाणवी लोक-काव्य के
साथ-साथ हरियाणवी बोली की छाप दिखलाई पड़ती है। वैसे लोक-काव्य से
शास्त्रीय-काव्य तथा शास्त्रीय-काव्य से लोक-काव्य काफी कुछ लेते देते रहते हैं।
सनातन से यह चल रहा है। भजन नामक लोक-काव्य के क्षेत्र में पं॰ बस्तीराम
जिन्हें जनमानस आदर से ‘दादा बस्तीराम’ भी कहता है, का अपना एक विशिष्ट
स्थान है। अन्य लोककवियों ने जहंा प्रभु की भक्ति के ही भजन गाए, वहां
पर पं॰ बस्तीराम ने प्रभु की भक्ति के भजन तो गाए ही, इसके साथ-साथ
धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, नीति, जीवनमूल्यों व आचरण में आई विकृतियों व
पाखंडांे का खंडन करने संबंधी उनके भजन अधिक पसंद किए जाते रहे हैं।
Chintan Research Journal (ISSN : 2229-7227), 2011
Chintan Research Journal (ISSN : 2229-7227), 2012
विज्ञान व अध्यात्म, पदार्थ व चेतना, हृदय व बुद्धि, बाहर व भीतरी तथा योग
व भोग में जब तक सन्तुलन र... more विज्ञान व अध्यात्म, पदार्थ व चेतना, हृदय व बुद्धि, बाहर व भीतरी तथा योग
व भोग में जब तक सन्तुलन रहता है, तो संसार का कार्य भलि तरह चलता
रहता है; लेकिन जब इनमें सन्तुलन बिगड़ जाता है तो चारों तरफ युद्ध,
अशान्ति, कलह, संघर्ष, ईष्र्या, द्वेष, तनाव, चिन्ता, वैमनस्य, गरीबी, अत्याचार,
शोषण, ऊँच-नीच का भेद आदि फैल जाते हैं । वर्तमान के संसार में जो
उन्नति दृष्टिगोचर हो रही है वह एकपक्षीय, पदार्थगत एवं भौतिकताप्रधान है,
इसीलिए चारों तरफ गरीबी, अशान्ति, दुःख, पीड़ा व तनाव का साम्राज्य फैला
हुआ है । लोग बेहोशी में चल रहे हैं । पूरा संसार एक तरह से पागलखाना
व यातनागृह बन चुका है । महाभारत युद्ध से कुछ समय पहले तक विज्ञान
व धर्म में एक सन्तुलन था, वह अस्त-व्यस्त हो गया है । किन कारणों से
ऐसा हुआ यह बताने का यहाँ उचित अवसर नहीं है । इस सन्तुलिन के
बिगड़ने से वे सारी बुराईयाँ, दोष, विकृतियाँ एवं मूढ़ताएँ दृष्टिगोचर होने
लगी, जो आज पूरे संसार में विद्यमान हैं । लोगों का आचार-विचार,
जीवनशैली, सोचने का ढंग, रहन-सहन, खान-पान, राजनीति व सामाजिक
व्यवहार सब विकृत होने लगे । अध्यात्म, ध्यान, योग, चेतना, होश, जागरण,
साक्षी व द्रष्टा की अपेक्षा संसार, बेहोशी, मूच्र्छा, भोग, जड़ता, निद्रा,
तामसिकता व शरीर की तरफ ही झुकाव वाली लोगों की जीवनशैली बन गई।
उन्नति का दुरूपयोग किया जाने लगा । सिद्धान्तों को ताक पर रख दिया
गया। आचार-विचार के नियम शिथिल पड़ गए । अपने स्वार्थ पूरे करने हेतु
सिद्धान्तों व नियमों की मनमानी व्याख्या की जाने लगी ।
Drashta Research Journal (ISSN : 2277-2480), 2013
बाजेभगत के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता जो उन्हें अन्य सांगियों से अलग करती है तथा शिखरपुरुष बन... more बाजेभगत के व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता जो उन्हें अन्य सांगियों से अलग करती है तथा शिखरपुरुष बना देती है वह है उनकी जीवनशैली। हरियाणा की सांग परंपरा में ऐसे सांगी कम ही हुए हैं जिनकी जीवनशैली एवं जिनका आचरण शुद्ध, पवित्र एवं गायकी के अनुकूल था। मंच पर चढ़कर वैदिक सनातन आर्यों की जीवनचर्या का बखान करना लेकिन अपने निजी जीवन में शराब जैसी कुरीतियों का शिकार होना। कई ऐसे चापलूसों द्वारा बनाए गए ब्रह्मज्ञानी सांगियों से बाजेभगत कतई अलग हैं। वे जैसा कहते थे वैसा जीते भी थे तथा जैसा जीते थे वैसा ही कहते भी थे। बाजेभगत की दिनचर्या, जीवनशैली, आचरण गायन आदि सब ही ध्र्म, नैतिकता सामाजिका एवं अध्यात्म से ओतप्रोत थे। लोगों ने उन्हें ‘बाजे भगत’ वैसे ही नहीं कहा, वे वास्तव में ‘भगत’ ही थे। एक सांगी होते हुए भी उनका जीवन शुद्ध, शुचिता एवं सात्विकता से परिपूर्ण था। लोगों की मांग के अनुसार उन्होंने समझौता नहीं किया।
दर्शन ज्योति, 2013
पदार्थ व चेतना का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है जिसे अतीत के भारतीय दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, मनीषियों व... more पदार्थ व चेतना का ऐसा कोई भी पक्ष नहीं है जिसे अतीत के भारतीय दार्शनिकों, वैज्ञानिकों, मनीषियों व योगियों ने न छुआ हो लेकिन भूतकाल में पश्चिम ने भारतीय सभ्यता की, ज्यादातर इसके सौंदर्यात्मक पक्ष की, विद्वेषपूर्ण व सहानुभूतिरहित आलोचना की है तथा उस आलोचना ने इसकी ललित कलाओं, स्थापत्य, मूर्तिकला व चित्राकला की घृणापूर्ण या तीव्र निंदा का रूप ग्रहण किया है। किसी जाति की संस्कृति का सौंदर्यात्मक पहलू परम महत्व रखता है तथा अपने मूल्यांकन में लगभग उतनी ही सूक्ष्म परीक्षा व सतर्कता की अपेक्षा रखता है जितनी कि दर्शन, ध्र्म व केंद्रीय रचनात्मक विचार जो कि भारतीय जीवन के आधर रहे हैं और जिनकी कि अध्किांश कला एवं साहित्य अर्थपूर्ण सौंदर्यात्मक रूपों में एक सचेतन अभिव्यक्ति है। जिन चीजों के मर्म मंे जो मनुष्य पैठ ही नहीं सकता उन पर निर्णय देने का भला वह प्रयास ही क्यों करे और रंगांे पर व्याख्यान देने वाले अंधे आदमी-सा दृश्य वह उत्पन्न ही क्यों करे? भारतीय कला का भारतीय कलात्मक सृजन का संपूर्ण आधार जो कि पूर्णतया सचेतन व शास्त्रासम्मत है, प्रत्यक्षतः आध्यात्मिक व अंतज्र्ञानात्मक है।
दर्शन ज्योति, 2013
ऋषियों ने जब सृष्टि-उत्पत्ति का विवरण देना चाहा, तो उन्होंने षड््-दर्शन को इसका माध्यम बनाया। षड्... more ऋषियों ने जब सृष्टि-उत्पत्ति का विवरण देना चाहा, तो उन्होंने षड््-दर्शन को इसका माध्यम बनाया। षड््-दर्शन में सृष्टि-उत्पत्ति के छह कारणों का विवरण विस्तार से दिया गया है। षड््-दर्शन में सामूहिकता, एकत्व, सहयोग, समन्वय, सर्वांगता एवं परिपूरकता आदि की विद्यमानता है तथा विरोध, विपरीतता, संघर्श एवं मैं सही हूं-बाकी सब गलत है, इसका अभाव है। पानी की प्राप्ति हेतु कुए की खुदाई करने वाले कर्मचारियों में कोई तो कुएं के भीतर कस्सी से खुदाई करता है, कोई खोदी हुई मिटटी को ऊपर बाल्टियों से खींचता है, कोई गड्ढे में भरे हुए पानी को निकालता रहता है, कोई ऊपर खड़े होकर नीचे कार्य करने वाले मजदूरों को निर्देश देता रहता है, कोई ईंटों की ढुलाई करता है, कोई उन हेतु चाय व पानी की व्यवस्था करता है। अब यदि ऊपर से देखा जाए तो उन मजदूरों के कार्य में विरोध दिखाई पड़ेगा, लेकिन यह विरोध भावना स्थूलबुद्धि, दुर्बुद्धि, अल्पबुद्धि, द्वेशबुद्धि आदि लोगों की दृष्टि में ही है। यदि दृष्टि थोड़ी-सी गहन व सूक्ष्म है, तर्कशक्ति में थोड़ा भी पैनापन बचा है तथा कार्यों व घटनाओं के थोड़ा भीतर प्रवेष करने का साहस है, तो सहज ही यह मालूम हो जाएगा कि सब कर्मचारी कुआ रूप कार्य को पूरा करने हेतु लगे हैं तथा उनके भिन्न-भिन्न कार्यों में कोई विरोध नहीं है। मिट्टी की खुदाई करने वाला, मिट्टी को ऊपर खींचने वाला, पानी को बाहर निकालने वाला, निर्देष देने वाला, ईंटों की ढुलाई करने वाला तथा भोजन की व्यवस्था करने वाला-ये छहों प्रकार के व्यक्ति ऐसे बैलों की तरह नहीं है जो गाड़ी के चारों तरफ जुते हुए हैं तथा विपरीत दिशाओं में गाड़ी को खींच रहे हैं। ये छह प्रकार के व्यक्ति पीने के पानी की व्यवस्था-रूप एक ही कार्य को सुचारू रूप से करने हेतु लगे हुए हैं। इस पर भी कोई इनके कार्य में विरोध देखता है, तो यह विरोध करने वालों में न होकर देखने वालों की दृष्टि, सोच व विचारधारा में है। भारतीय-दर्शन (हिंदू-दर्शन) के संबंध में यह बात पूरी तरह से सत्य है। मध्यकालीन भाष्यकारों से प्रेरणा व शक्ति पाकर पाश्चात्य तथा उनके अंधानुकरणी भारतीय विद्वानों ने भारतीय-दर्शन यानि षड््-दर्शन में विरोध देखना ही शुरू नहीं किया, अपितु पुस्तकों पर पुस्तकें लिखकर उस विरोध का दो शताब्दियों से प्रचार भी किया जा रहा है।
Awareness International Research Journal (ISSN : 2320 - 8333), 2013
वेद आदि शास्त्रों में जो कहा गया है वह तो एक झलक मात्र है कि संतान के लिए माता-पिता ही सब कुछ हैं... more वेद आदि शास्त्रों में जो कहा गया है वह तो एक झलक मात्र है कि संतान के लिए माता-पिता ही सब कुछ हैं-माता-पिता सब तीर्थ हैं- माता-पिता ही स्वर्ग हैं-माता-पिता की सेवा न करने वाली संतान घोर नरकों में पीड़ा भोगती है-माता-पिता चाहे कितने ही दुष्ट एवं कुकर्मी हों, वे सेवा के योग्य हैं-माता-पिता चाहे जैसी भी गलत या ठीक आज्ञा देते हो, संतान का कर्त्तव्य है कि वह बिना सोचे-विचारे उसका अनुसरण करें- अपनी चमड़ी से भी यदि संतान जूते बनवाकर माता-पिता को पहना दे तो भी माता-पिता का कर्ज नहीं उतरता-माता-पिता कितना ही बड़ा क्रूर एवं अनैतिक कार्य करें वह क्षम्य है लेकिन संतान मामूली भी अनैतिक कार्य करेगी तो उसे नरकों में यातनाएं भोगनी पड़ेगी- संतान कितना ही प्रयास करे लेकिन माता-पिता का कर्ज नहीं उतर सकता आदि-आदि कितनी ही बेतुकी, तर्कहीन, बेसिर पैर की तथा आधारहीन बातें भारत में ही नहीं पूरे विश्व में कही-सुनी जाती हैं। अब जो इन बातों को कहते हैं लेकिन वे स्वयं इनका अनुसरण नहीं करते। कहने वाले भी तो किसी न किसी की संतान होते हैं। ये ऊपरोक्त उपदेश स्वयं हेतु नहीं हैं अपितु दूसरों हेतु हैं । यदि कोई उन उपदेशकों से प्रश्न करें कि क्या आपने इन उपदेशों को अपने आचरण में उतारा है तो वे तुरंत प्रश्नकर्त्ता को उदंडता, मूर्खता, वाचालता एवं आचारहीन की उपाधि दे देंगे। अब ऐसी अंधेरगर्दी व नियमहीनता शायद कहीं भी विद्यमान न होगी । स्वयं मांस सेवन करें तथा दूसरों को करूणा व दया का उपदेश दें; स्वयं कुंभकरण की तरह दिन-रात सोते रहें व दूसरों को स्वस्थ व स्फूर्त जीवन जीने का उपदेश दें; स्वयं दिन-रात भोगरत रहें तथा दूसरों को ब्रह्मचर्य व संयम का उपदेश दें-ऐसे नकली जीवन जीने वालों के संबंध में क्या कहा जाए?
Chintan International Research Journal (ISSN : 2229-7227), 2011
गुरू वह होता है जिसने अपने स्वयं को जान लिया है। जिसने अपने भीतरी बाहरी विकारों की शुद्धि करके चे... more गुरू वह होता है जिसने अपने स्वयं को जान लिया है। जिसने अपने भीतरी बाहरी विकारों की शुद्धि करके चेतना को निर्मल बना लिया हो, उसे गुरू कहा जाता है। जिसने अपने अहंकार, अपनी अकड़, अपनी वासना, ईर्ष्या, घृणा, क्रोध, लोभ, मोह आदि का रूपांतरण कर लिया हो वह गुरू होता है। प्रेम, करूणा, मैत्री, आनंद आत्मा का स्वभाव है जिसने इनको फिर से पा लिया है, वह गुरू है। गुरू एक शुभ्र, निर्मल एवं समाधिस्थ चेतना है जिसकी उपस्थिति मात्र से परमानंद की झलक मिलती है। गुरू कुछ करता नहीं अपितु जिसकी उपस्थिति से कुछ आनंद के झरने फूटने लगे, वह गुरू है। भटकी चेतनाओं को जो राह दिखाए, वह गुरू है। ‘‘गुरू तुम्हारे ही मार्ग पर है तुमसे आगे, पर मार्ग नहीं है। इसलिए तुम्हारी मदद कर सकता है। परमात्मा तुम्हारी सहायता नहीं कर सकता। क्योंकि वह उस यात्रा में भटका ही नहीं, जहां तुम भटक रहे हो। गुरू तो होता है एक अनुपस्थिति की भांति-एक ना कुछ की हालत में। और यह तथ्य ही एक विराट शक्ति का कारण हो जाता है। यह तथ्य ही, यह शून्य की सत्ता ही उसके चारों तरफ रहस्यात्मक घटनाओं का कारण हो जाती है। परंतु गुरू उन्हें नहीं कर रहा है।
Talks by Acharya Shilak Ram
Drashta Research Journal, 2014
यहाँ भारत का काला अंग्रेज वर्ग व भाषा वेफ माध्यम से अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले राजनीतिज्ञ ... more यहाँ भारत का काला अंग्रेज वर्ग व भाषा वेफ माध्यम से अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले राजनीतिज्ञ यह जान लें कि अंग्रेजी कभी भी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती। भारत वेफ अचेतन व सामुहिक अचेतन में संस्कार भारतीय भाषाओं वेफ हैं। अंग्रेजी को मातृभाषा बनाने वेफ चक्र में हम अपनी भाषा, देश, संस्कृति व धर्म को नष्ट कर देंगे। भारत तभी तक भारत है, जब तक उसवेफ मौलिक स्रोतों का सम्मान किया जाता है। भारत अंग्रेजी भाषा वेफ माध्यम से रचनात्मक, क्रांतिकारी एवं अभिनव को जन्म नहीं दे सकता। यदि हमें अपने राष्ट्र, संस्कृति, सभ्यता व अपने धर्म-अध्यात्म की रक्षा करनी है तो हमारी राष्ट्रभाषा ही इसमें हमारी मदद कर सकती है। भाषा की गुलामी राजनीतिक गुलामी से भी अधिक है।
Teaching Documents by Acharya Shilak Ram
Pramana Research Journal (ISSN : 2249-2976)
सरकार ने रामलीला मैदान से स्वमी रामदेव को अनशन शुरू होते ही मार-पीटकर भगा दिया तथा दिल्ली प्रवेश ... more सरकार ने रामलीला मैदान से स्वमी रामदेव को अनशन शुरू होते ही मार-पीटकर भगा दिया तथा दिल्ली प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन अन्ना हजारे को लगातार 12-13 दिन तक हो-हल्ला करने पर भी कुछ नहीं कहा - क्या रहस्य है इसका? जिन्हें गांधीवाद की थोड़ी भी समझ है, वे इसका उत्तर सहज ही दे सकते हैं । सरकार को स्वामी रामदेव से ही खतरा है, अन्ना हजारे से नहीं । सरकार व अन्ना हजारे के आदर्श ले-देकर किसी भी तरह से गांधी ही हैं । इनमें सुलह-समझौता होना साधारण सी बात है । स्वामी रामदेव संपूर्ण व्यवस्था परिवर्तन की बात को लेकर आंदोलन चला रहे थे जबकि अन्ना हजारे का अनशन सिर्फ एक कानून ‘जन लोकपाल’ को लेकर ही था । खतरा तो सरकार को स्वामी रामदेव से ही था क्योंकि वे आमूल परिवर्तन चाहते थे। इससे सत्तासीन सरकार के अस्तित्व को खतरा हो जाता । अन्ना हजारे मात्र रोग के एक-दो लक्षणों को ही चिकित्सा की बात कर रहे थे और फिर वे गांधीवादी भी तो ठहरे । भगत सिंह, सुभाष, श्री अरविंद तथा सावरकर की विचारधारा से गांधी व कांग्रेस की कभी सुलह हुई ही नहीं, फिर अब वह कैसे होती? बस, रामदेव को भगा दिया तथा अन्ना को हीरो बना दिया । हालांकि यह प्रयोगसिद्ध बात है कि भारत व इसकी जनता का सर्वांगीण कल्याण इन अनशन, धरनों, भूख-हड़ताल, अहिंसा, शांति व करूणा की एकतरफा व अपराधियों को गले लगाने की नीतियों से कभी नहीं होगा । व्यवस्था में आमूल परिवर्तन के बिना कुछ विशेष होने की कल्पना करना हवाई किले बनाना ही कहा जाऐगा ।
Books by Acharya Shilak Ram
Uploads
Papers by Acharya Shilak Ram
तो अपने भीतर की शुद्धि की सुगंध है । उसमें दूसरे से कोई
संबंध नहीं होता । प्रेम में धोखा भी नहीं दिया जा सकता । प्रेम अपने
भीतर की क्रांति है । जो कुछ भी आजकल के युवक एवं युवतियां कर
रहे है, वह सब प्रेम नहीं है अपितु वासना है, उपरी आकर्षण है । समीप
यदि ये ऐसे नाममात्र के प्रेमी रह लें तो सब प्रेम आदि गायब हो जाएंगे।
इसीलिए प्रेम’विवाह सफल नहीं होते हैं। प्रेम के नाम पर धोखा,
अविश्वास, शोषण आदि ही चल रहे हैं । दूर के ढोल सुहावने - समीप
आते ही सब पोल-पट्टी खुल जाती है । किसी के रूप-यौवन को
देखकर उसकी तरफ आकर्षित होना गलत नहीं है लेकिन यह वासना एवं
कामुकता है, प्रेम नहीं । यह सब प्रेम के पथ का एक पड़ाव हो सकता
है लेकिन प्रेम नहीं । प्रेम में शिकायतें भी नहीं होती अपितु यह सब
तो वासना में ही होता है । प्रेम किसी को गुलामी में भी नहीं रखता
है । प्रेम तो परम आजादी है ।
ने ही है- उन्हीं विधियों को संतमत ने भी अपनाया है । कुछ अंग्रेजी पढे-लिखे
सिरफिरे विचारक भारतीय संस्कृति को हीन सिद्ध करने की कुत्सित मनोवृत्ति
के कारण कुछ का कुछ पागल प्रलाप करने लगते है, लेकिन इसमें सत्यांश कुछ
भी नहीं है । मूलतः ‘सूरत शब्दयोग’ नामक साधना की विधि सनातन भारतीय
योग-परंपरा में सनातन से चलती आई है । पांच या छह शदी पूर्व संतों ने
इसका विकास किया या इसका आविष्कार किया - यह तथ्य गलत है । जप,
ध्वनि व प्रकाश के सम्मिलित रूप से बनी यह विधि भारतवर्ष में सदैव से रही
है। इस संबंध में यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि समकालीन
युग में इस विधि का खूब दुरूपयोग हो रहा है । करोड़ों व्यक्ति इस
विधि से गुरूओं ने दीक्षित कर रखे हैं, जो या तो इसका दुरूपयोग अनिद्रा
की व्याधि को दूर करने हेतु करते हैं या अपने अहम् के पोषण हेतु करते
हैं या इसके माध्यम से अपना कोई व्यवसाय वगैरा चमकाते हैं । जिन विचारकों
ने यह सिद्ध किया है कि संतमार्ग अलग से कोई मार्ग है तथा उनकी अलग
से कोई ध्यान की विधि है उनका उद्देश्य इसको सिद्ध करने के माध्यम से अपने
आपको एक विचारक, समीक्षक या दार्शनिक के रूप में स्थापित करना अधिक
रहा है तथा संतमार्ग की साधना से साधकों का कल्याण मामूली बात ।
अहम् को तो बहुत देख लिया, अब अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी
अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक
सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की
अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसको सीढ़ी बनाएं । विज्ञान
भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है । वैज्ञानिक होकर
अवैज्ञानिक बातें करना तथा उसी के अनुरूप अपनी जीवन-शैली बनाए रखना मूढ़ता
का ही परिचायक है । विज्ञान से जो लाभ मिल सकते हैं उन्हें ग्रहण करें परंतु
वहीं पर रूक न जाएं । उससे आगे भी जाएं । दर्शन-शास्त्र विषय की भी सुनें।
उसके अनुसार भी जीवन को जीएं । जितने लाभ विज्ञान से मिलते है उससे ज्यादा
लाभ दर्शन-शास्त्र से मिल सकते हैं । भारतवर्ष ने इस तरह की व्यवस्था को
लाखों वर्ष तक स्वीकारा भी है तथा खोया भी है । शरीर से ‘शरीरी’ में जाएं।
बुद्धि से ‘हृदय’ में गति करे । पदार्थ से ‘चेतना’ में प्रवेश करें । विषय से
‘विषयी’ की दिशा में भी जाएं ।
जीवन-मूल्यों का सर्वोपरि महत्त्व है । इसके बिना एक स्थिर एवं प्रगतिशील समाज
की कल्पना भी नहीं की जा सकती । महर्षि मनु का यह उद्घोष कि ‘स्व स्व
चरित्र...’ यानि कि अपने-अपने चरित्र, आचरण, जीवन-शैली एवं आहार-विहार को
शुद्ध व सृजनात्मक बनाने हेतु लोग हमारे भारतवर्ष में सदैव से आते रहे हैं ।
इस संदर्भ में यह सोचनीय हो जाता है कि हमारे जीवन का प्रत्येक पक्ष भ्रष्ट,
दुषित एवं पतनशील हो गया है । कहां हम अन्य राष्ट्रों को चरित्र एवं
आचार-विचार की शिक्षा दिया करते थे और कहां हम आज सर्वाधिक भ्रष्ट,
अनैतिक, चरित्रहीन एवं असहाय हो गए हैं। क्यों हो गए हैं हम ऐसे? नेता लोगों
ने तो इस पर विचार करना ही छोड़ दिया है । वे तो हमारी इस धरा पर एक
तरह से असत्य, बुराई, पतन, चरित्रहीनता एवं अनैतिकता का पर्याय सा बन चुके
हैं । लगभग सब ही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे सिद्ध हो रहे हैं ।
समकालीन भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों यथा वसंत कुमार लाल, रामनाथ
शर्मा, डाॅ॰ वेदप्रकाश वर्मा, डब्ल्यू॰ के॰ राईट, जाॅन निकोलसन, ह्यूम,
कांट, लोत्से, शैलिंग आदि की पुस्तकों का अध्ययन किया तो मालूम हुआ
कि इन लेखकों की सोच एकपक्षीय एवं भेदभावपूर्ण है । पाश्चात्य विचार
यदि धर्म के संबंध में यह बात कि ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ का इतिहास मात्र दो
सदी पुराना है तो उन्हें माफ भी किया जा सकता है परंतु भारतीय विचारक
भी धर्म-दर्शनशास्त्र की पुस्तकों में इस तरह की बातें बतलाते हैं तो
उनकी सोच पर तरस आता है । पाश्चात्य विचारक ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ को
कतई नया विषय यानि कि दो सदी पुराना विषय मानते हैं । इनके अनुसार
दो सदी से पूर्व धर्म-दर्शनशास्त्र नाम का विषय था ही नहीं । यहां पर
भारतीय विचारक इस तरह की बातों को मान्यता देकर अपनी अज्ञानता एवं
पाश्चात्य विचारकों के पिछलग्गूपन का परिचय देते ही हैं इसके साथ-साथ
पाश्चात्य विचारकों की भारतीय धर्म व दर्शनशास्त्र के संबंध में खोजी
प्रवृत्ति की पोल भी खुल जाती है ।
निर्धारित नहीं किया जा सकता। ग्रामीण परिवेश सदैव से इससे आवेष्टित रहा है।
कोई ऐसा काल नहीं था जब लोक-काव्य न रहा हो। पुस्तकरूप में न आया हो
यह एक अलग बात है। भजन, किस्से, रागनी, कहावतों, लोकोक्तियों व लोकगीतों
की परंपरा हरियाणा में सनातन से विद्यमान रही है। लोकगीत वैसे होते ही वे
हैं जिनके रचयिता का नाम मालूम न हो। हरियाणा राज्य के लोग जब भी प्रभु
भक्ति में मगन होते तो वे अपने भावों की अभिव्यक्ति सुमधुर भजन गाकर करते
थे। पं॰ बस्तीराम, बाजेभगत, पं॰ ईश्वरसिंह, पृथ्वीसिंह बेधड़क, पं॰ लख्मीचंद,
सांगी सुलता आदि के भजन आज भी लोग बड़ै चाव सुनते व गाते हैं। कबीर
व नितानंद के भक्तिमय शब्दों में भी प्रचुरता से हरियाणवी लोक-काव्य के
साथ-साथ हरियाणवी बोली की छाप दिखलाई पड़ती है। वैसे लोक-काव्य से
शास्त्रीय-काव्य तथा शास्त्रीय-काव्य से लोक-काव्य काफी कुछ लेते देते रहते हैं।
सनातन से यह चल रहा है। भजन नामक लोक-काव्य के क्षेत्र में पं॰ बस्तीराम
जिन्हें जनमानस आदर से ‘दादा बस्तीराम’ भी कहता है, का अपना एक विशिष्ट
स्थान है। अन्य लोककवियों ने जहंा प्रभु की भक्ति के ही भजन गाए, वहां
पर पं॰ बस्तीराम ने प्रभु की भक्ति के भजन तो गाए ही, इसके साथ-साथ
धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, नीति, जीवनमूल्यों व आचरण में आई विकृतियों व
पाखंडांे का खंडन करने संबंधी उनके भजन अधिक पसंद किए जाते रहे हैं।
व भोग में जब तक सन्तुलन रहता है, तो संसार का कार्य भलि तरह चलता
रहता है; लेकिन जब इनमें सन्तुलन बिगड़ जाता है तो चारों तरफ युद्ध,
अशान्ति, कलह, संघर्ष, ईष्र्या, द्वेष, तनाव, चिन्ता, वैमनस्य, गरीबी, अत्याचार,
शोषण, ऊँच-नीच का भेद आदि फैल जाते हैं । वर्तमान के संसार में जो
उन्नति दृष्टिगोचर हो रही है वह एकपक्षीय, पदार्थगत एवं भौतिकताप्रधान है,
इसीलिए चारों तरफ गरीबी, अशान्ति, दुःख, पीड़ा व तनाव का साम्राज्य फैला
हुआ है । लोग बेहोशी में चल रहे हैं । पूरा संसार एक तरह से पागलखाना
व यातनागृह बन चुका है । महाभारत युद्ध से कुछ समय पहले तक विज्ञान
व धर्म में एक सन्तुलन था, वह अस्त-व्यस्त हो गया है । किन कारणों से
ऐसा हुआ यह बताने का यहाँ उचित अवसर नहीं है । इस सन्तुलिन के
बिगड़ने से वे सारी बुराईयाँ, दोष, विकृतियाँ एवं मूढ़ताएँ दृष्टिगोचर होने
लगी, जो आज पूरे संसार में विद्यमान हैं । लोगों का आचार-विचार,
जीवनशैली, सोचने का ढंग, रहन-सहन, खान-पान, राजनीति व सामाजिक
व्यवहार सब विकृत होने लगे । अध्यात्म, ध्यान, योग, चेतना, होश, जागरण,
साक्षी व द्रष्टा की अपेक्षा संसार, बेहोशी, मूच्र्छा, भोग, जड़ता, निद्रा,
तामसिकता व शरीर की तरफ ही झुकाव वाली लोगों की जीवनशैली बन गई।
उन्नति का दुरूपयोग किया जाने लगा । सिद्धान्तों को ताक पर रख दिया
गया। आचार-विचार के नियम शिथिल पड़ गए । अपने स्वार्थ पूरे करने हेतु
सिद्धान्तों व नियमों की मनमानी व्याख्या की जाने लगी ।
Talks by Acharya Shilak Ram
Teaching Documents by Acharya Shilak Ram
Books by Acharya Shilak Ram
तो अपने भीतर की शुद्धि की सुगंध है । उसमें दूसरे से कोई
संबंध नहीं होता । प्रेम में धोखा भी नहीं दिया जा सकता । प्रेम अपने
भीतर की क्रांति है । जो कुछ भी आजकल के युवक एवं युवतियां कर
रहे है, वह सब प्रेम नहीं है अपितु वासना है, उपरी आकर्षण है । समीप
यदि ये ऐसे नाममात्र के प्रेमी रह लें तो सब प्रेम आदि गायब हो जाएंगे।
इसीलिए प्रेम’विवाह सफल नहीं होते हैं। प्रेम के नाम पर धोखा,
अविश्वास, शोषण आदि ही चल रहे हैं । दूर के ढोल सुहावने - समीप
आते ही सब पोल-पट्टी खुल जाती है । किसी के रूप-यौवन को
देखकर उसकी तरफ आकर्षित होना गलत नहीं है लेकिन यह वासना एवं
कामुकता है, प्रेम नहीं । यह सब प्रेम के पथ का एक पड़ाव हो सकता
है लेकिन प्रेम नहीं । प्रेम में शिकायतें भी नहीं होती अपितु यह सब
तो वासना में ही होता है । प्रेम किसी को गुलामी में भी नहीं रखता
है । प्रेम तो परम आजादी है ।
ने ही है- उन्हीं विधियों को संतमत ने भी अपनाया है । कुछ अंग्रेजी पढे-लिखे
सिरफिरे विचारक भारतीय संस्कृति को हीन सिद्ध करने की कुत्सित मनोवृत्ति
के कारण कुछ का कुछ पागल प्रलाप करने लगते है, लेकिन इसमें सत्यांश कुछ
भी नहीं है । मूलतः ‘सूरत शब्दयोग’ नामक साधना की विधि सनातन भारतीय
योग-परंपरा में सनातन से चलती आई है । पांच या छह शदी पूर्व संतों ने
इसका विकास किया या इसका आविष्कार किया - यह तथ्य गलत है । जप,
ध्वनि व प्रकाश के सम्मिलित रूप से बनी यह विधि भारतवर्ष में सदैव से रही
है। इस संबंध में यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि समकालीन
युग में इस विधि का खूब दुरूपयोग हो रहा है । करोड़ों व्यक्ति इस
विधि से गुरूओं ने दीक्षित कर रखे हैं, जो या तो इसका दुरूपयोग अनिद्रा
की व्याधि को दूर करने हेतु करते हैं या अपने अहम् के पोषण हेतु करते
हैं या इसके माध्यम से अपना कोई व्यवसाय वगैरा चमकाते हैं । जिन विचारकों
ने यह सिद्ध किया है कि संतमार्ग अलग से कोई मार्ग है तथा उनकी अलग
से कोई ध्यान की विधि है उनका उद्देश्य इसको सिद्ध करने के माध्यम से अपने
आपको एक विचारक, समीक्षक या दार्शनिक के रूप में स्थापित करना अधिक
रहा है तथा संतमार्ग की साधना से साधकों का कल्याण मामूली बात ।
अहम् को तो बहुत देख लिया, अब अहम् से पार जाकर अपने ‘स्व’ की भी
अनुभूति करें । ‘पदार्थ’ से ‘चेतना’ की तरफ भी गति करें । पदार्थ से तो क्षणिक
सुख ही मिल सकता है । ‘चेतना’ में उतरें तथा अखंड व शाश्वत् आनंद की
अनुभूति करें । विज्ञान की उपेक्षा न करें अपितु इसको सीढ़ी बनाएं । विज्ञान
भी सही है तथा जो विज्ञान से पार है, वह भी सही है । वैज्ञानिक होकर
अवैज्ञानिक बातें करना तथा उसी के अनुरूप अपनी जीवन-शैली बनाए रखना मूढ़ता
का ही परिचायक है । विज्ञान से जो लाभ मिल सकते हैं उन्हें ग्रहण करें परंतु
वहीं पर रूक न जाएं । उससे आगे भी जाएं । दर्शन-शास्त्र विषय की भी सुनें।
उसके अनुसार भी जीवन को जीएं । जितने लाभ विज्ञान से मिलते है उससे ज्यादा
लाभ दर्शन-शास्त्र से मिल सकते हैं । भारतवर्ष ने इस तरह की व्यवस्था को
लाखों वर्ष तक स्वीकारा भी है तथा खोया भी है । शरीर से ‘शरीरी’ में जाएं।
बुद्धि से ‘हृदय’ में गति करे । पदार्थ से ‘चेतना’ में प्रवेश करें । विषय से
‘विषयी’ की दिशा में भी जाएं ।
जीवन-मूल्यों का सर्वोपरि महत्त्व है । इसके बिना एक स्थिर एवं प्रगतिशील समाज
की कल्पना भी नहीं की जा सकती । महर्षि मनु का यह उद्घोष कि ‘स्व स्व
चरित्र...’ यानि कि अपने-अपने चरित्र, आचरण, जीवन-शैली एवं आहार-विहार को
शुद्ध व सृजनात्मक बनाने हेतु लोग हमारे भारतवर्ष में सदैव से आते रहे हैं ।
इस संदर्भ में यह सोचनीय हो जाता है कि हमारे जीवन का प्रत्येक पक्ष भ्रष्ट,
दुषित एवं पतनशील हो गया है । कहां हम अन्य राष्ट्रों को चरित्र एवं
आचार-विचार की शिक्षा दिया करते थे और कहां हम आज सर्वाधिक भ्रष्ट,
अनैतिक, चरित्रहीन एवं असहाय हो गए हैं। क्यों हो गए हैं हम ऐसे? नेता लोगों
ने तो इस पर विचार करना ही छोड़ दिया है । वे तो हमारी इस धरा पर एक
तरह से असत्य, बुराई, पतन, चरित्रहीनता एवं अनैतिकता का पर्याय सा बन चुके
हैं । लगभग सब ही एक ही थैली के चट्टे-बट्टे सिद्ध हो रहे हैं ।
समकालीन भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों यथा वसंत कुमार लाल, रामनाथ
शर्मा, डाॅ॰ वेदप्रकाश वर्मा, डब्ल्यू॰ के॰ राईट, जाॅन निकोलसन, ह्यूम,
कांट, लोत्से, शैलिंग आदि की पुस्तकों का अध्ययन किया तो मालूम हुआ
कि इन लेखकों की सोच एकपक्षीय एवं भेदभावपूर्ण है । पाश्चात्य विचार
यदि धर्म के संबंध में यह बात कि ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ का इतिहास मात्र दो
सदी पुराना है तो उन्हें माफ भी किया जा सकता है परंतु भारतीय विचारक
भी धर्म-दर्शनशास्त्र की पुस्तकों में इस तरह की बातें बतलाते हैं तो
उनकी सोच पर तरस आता है । पाश्चात्य विचारक ‘धर्म-दर्शनशास्त्र’ को
कतई नया विषय यानि कि दो सदी पुराना विषय मानते हैं । इनके अनुसार
दो सदी से पूर्व धर्म-दर्शनशास्त्र नाम का विषय था ही नहीं । यहां पर
भारतीय विचारक इस तरह की बातों को मान्यता देकर अपनी अज्ञानता एवं
पाश्चात्य विचारकों के पिछलग्गूपन का परिचय देते ही हैं इसके साथ-साथ
पाश्चात्य विचारकों की भारतीय धर्म व दर्शनशास्त्र के संबंध में खोजी
प्रवृत्ति की पोल भी खुल जाती है ।
निर्धारित नहीं किया जा सकता। ग्रामीण परिवेश सदैव से इससे आवेष्टित रहा है।
कोई ऐसा काल नहीं था जब लोक-काव्य न रहा हो। पुस्तकरूप में न आया हो
यह एक अलग बात है। भजन, किस्से, रागनी, कहावतों, लोकोक्तियों व लोकगीतों
की परंपरा हरियाणा में सनातन से विद्यमान रही है। लोकगीत वैसे होते ही वे
हैं जिनके रचयिता का नाम मालूम न हो। हरियाणा राज्य के लोग जब भी प्रभु
भक्ति में मगन होते तो वे अपने भावों की अभिव्यक्ति सुमधुर भजन गाकर करते
थे। पं॰ बस्तीराम, बाजेभगत, पं॰ ईश्वरसिंह, पृथ्वीसिंह बेधड़क, पं॰ लख्मीचंद,
सांगी सुलता आदि के भजन आज भी लोग बड़ै चाव सुनते व गाते हैं। कबीर
व नितानंद के भक्तिमय शब्दों में भी प्रचुरता से हरियाणवी लोक-काव्य के
साथ-साथ हरियाणवी बोली की छाप दिखलाई पड़ती है। वैसे लोक-काव्य से
शास्त्रीय-काव्य तथा शास्त्रीय-काव्य से लोक-काव्य काफी कुछ लेते देते रहते हैं।
सनातन से यह चल रहा है। भजन नामक लोक-काव्य के क्षेत्र में पं॰ बस्तीराम
जिन्हें जनमानस आदर से ‘दादा बस्तीराम’ भी कहता है, का अपना एक विशिष्ट
स्थान है। अन्य लोककवियों ने जहंा प्रभु की भक्ति के ही भजन गाए, वहां
पर पं॰ बस्तीराम ने प्रभु की भक्ति के भजन तो गाए ही, इसके साथ-साथ
धर्म, दर्शन, संस्कृति, सभ्यता, नीति, जीवनमूल्यों व आचरण में आई विकृतियों व
पाखंडांे का खंडन करने संबंधी उनके भजन अधिक पसंद किए जाते रहे हैं।
व भोग में जब तक सन्तुलन रहता है, तो संसार का कार्य भलि तरह चलता
रहता है; लेकिन जब इनमें सन्तुलन बिगड़ जाता है तो चारों तरफ युद्ध,
अशान्ति, कलह, संघर्ष, ईष्र्या, द्वेष, तनाव, चिन्ता, वैमनस्य, गरीबी, अत्याचार,
शोषण, ऊँच-नीच का भेद आदि फैल जाते हैं । वर्तमान के संसार में जो
उन्नति दृष्टिगोचर हो रही है वह एकपक्षीय, पदार्थगत एवं भौतिकताप्रधान है,
इसीलिए चारों तरफ गरीबी, अशान्ति, दुःख, पीड़ा व तनाव का साम्राज्य फैला
हुआ है । लोग बेहोशी में चल रहे हैं । पूरा संसार एक तरह से पागलखाना
व यातनागृह बन चुका है । महाभारत युद्ध से कुछ समय पहले तक विज्ञान
व धर्म में एक सन्तुलन था, वह अस्त-व्यस्त हो गया है । किन कारणों से
ऐसा हुआ यह बताने का यहाँ उचित अवसर नहीं है । इस सन्तुलिन के
बिगड़ने से वे सारी बुराईयाँ, दोष, विकृतियाँ एवं मूढ़ताएँ दृष्टिगोचर होने
लगी, जो आज पूरे संसार में विद्यमान हैं । लोगों का आचार-विचार,
जीवनशैली, सोचने का ढंग, रहन-सहन, खान-पान, राजनीति व सामाजिक
व्यवहार सब विकृत होने लगे । अध्यात्म, ध्यान, योग, चेतना, होश, जागरण,
साक्षी व द्रष्टा की अपेक्षा संसार, बेहोशी, मूच्र्छा, भोग, जड़ता, निद्रा,
तामसिकता व शरीर की तरफ ही झुकाव वाली लोगों की जीवनशैली बन गई।
उन्नति का दुरूपयोग किया जाने लगा । सिद्धान्तों को ताक पर रख दिया
गया। आचार-विचार के नियम शिथिल पड़ गए । अपने स्वार्थ पूरे करने हेतु
सिद्धान्तों व नियमों की मनमानी व्याख्या की जाने लगी ।