Swami Ramdev: Ek Yogi, Ek Yodha: Swami Ramdev ki Pehli aur Ekmatra Jeevani
By Sandeep Deo
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About this ebook
Baba Ramdev went for a mission to promote health of all citizens so that poor people can keep optimum health through yoga and overcome diseases that cannot be cured even through expensive medicines. But while on this mission, he found out that the bigger problem lies within the country than globally with regards to health. Then he started to raise his voice. He is man of determination and once he takes aim, he does not give up until it is accomplished.
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Swami Ramdev - Sandeep Deo
अध्याय-1
बालक रामकिशन आखिर कैसे बना स्वामी रामदेव
स्वामी रामदेव के चेहरे को आप गौर से देखें, उनके माथे पर चोट का गहरा निशान आज भी मौजूद है। यह कोई साधरण चोट का निशान नहीं, बल्कि एक ऐसी चोट का निशान है, जिसके कारण हम बचपन में ही इस विलक्षण प्रतिभा को खो सकते थे। रामकिशन की मां गुलाब देवी बताती हैं, ‘रामकिशन केवल छह साल का था। एक दिन वह अपनी बहन के साथ छत पर खेल रहा था। खेल-खेल में उसका पैर फिसला और वह छत से सिर के बल घर के आंगन में गिर पड़ा। आनन-फानन में उसे निकट के चिकीत्सालय ले गए, जहां डॉक्टर ने कहा की बहुत अधिक खून बह चुका है। थोड़ी देर हो जाती तो बच्चा या तो ‘कोमा’ में चला जाता या फिर उसकी जान भी जा सकती थी। हमें तो लगा की हमने अपने बच्चे को खो ही दिया, लेकिन ईश्वर की कृपा से वह बच गया।’
योगी रामदेव
आज के स्वामी रामदेव बचपन में अपने मां-बाप के लाड़ले रामकिशन थे। मौत को मात देना उन्होंने जन्म के बाद से ही सीख लिया था। जन्म के कुछ समय पश्चात् ही शिशु रामकिशन के चेहरे को लकवा मार गया। लकवे का वह घातक झटका था, लेकिन अस्तित्व को यह मंजूर नहीं था। अस्तित्व ने तो उन्हें स्वामी रामेदव के रूप में ‘योग क्रांति’ पैदा करने के लिए दुनिया में भेजा था, इसलिए शिशु रामकिशन लकवे के उस तेज झटके से उबर गए। लेकिन लकवे का वह झटका इतना गंभीर था की आज भी उसका मामूली असर स्वामी रामदेव के चेहरे पर देखा जा सकता है।
मौत और नन्हें रामकिशन के बीच आंख-मिचौली जारी थी। रामकिशन जब महज सात-आठ साल के रहे होंगे तो एक बार फिर से उनका सामना मौत से हुआ। मां गुलाब देवी बताती हैं, ‘रामकिशन अपने दोस्तों के साथ गांव के तालाब में नहाने गया था। अचानक वह गहरे पानी में चला गया और डूब गया। उसके साथी ‘रामकिशन डूब गया-रामकिशन डूब गया’ - चिल्लाने लगे। उनकी चिल्लाने की आवाज सुनकर गांव के ही एक युवक ने पानी में छलांग लगाकर डूबे हुए रामकिशन को बाहर निकाला। वह बेहोश हो चुका था। काफी सारा पानी उसके पेट में जा चुका था। ईश्वर ने इस बार भी मेरे बेटे पर कृपा की। उसके बाद से तो हम उसकी जिंदगी को लेकर इतना डरने लगे थे की कुछ समय के लिए भी वह आंखों के सामने से ओझल होता तो मैं बेचैन हो जाती थी।’
मां गुलाब देवी के मुताबिक, ‘उम्र के छठे व सातवें-आठवें साल में मौत से दो बार आमना-सामना होने के बाद रामकिशन खोया-खोया रहने लगा। हमारे घर में देश को आजाद कराने वाले स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रामप्रसाद बिस्मिल, सुभाषचन्द्र बोस आदि की तस्वीरें लगी थीं। रामकिशन घंटों इन तस्वीरों को निहारा करता। हम पूछते भी तो वह कुछ नहीं बताता। एक दिन कहने लगा, ‘मां मैं भी बड़ा होकर इन सबकी ही तरह क्रांतिकारी बनूंगा।’ मैंने हंसते हुए उसका मन बहलाने के लिए कह दिया, हां मेरे लाल, तू भी बड़ा होकर बड़ी क्रांति करना। मुझे क्या पता था की हंसी में कही गई मेरी यह बात एक दिन वह सच साबित कर देगा!’ क्रांतिकारियों की तस्वीरों और मां की एक ‘ठिठोली’ ने महज 8 वर्ष के बालक के अंदर क्रांति की ऐसी आग जगा दी की बड़ा होकर वह छोटा रामकिशन ‘व्यवस्था परिवर्तन’ का बड़ा नायक स्वामी रामदेव बन गया।
बाल्यकाल
स्वामी रामदेव का जन्म हरियाणा के महेन्द्रगढ़ जिला स्थित सैद अलीपुर नामक एक छोटे से गांव में हुआ। भारतीय संन्यास परंपरा के अनुसार, एक संन्यासी का दूसरा जन्म संन्यास लेने के उपरांत माना जाता है, इसलिए पहले जन्म की प्रासंगिकता समाप्त हो जाती है। स्वामी रामदेव ने अपने जन्मदिन की तारीख को अपने जीवन से मिटा दिया है। अपने वास्तविक जन्मदिन की न तो वे चर्चा करते हैं, न संस्थान में उनका जन्मदिन मनाया जाता है और न ही उनके माता-पिता को ही वह तिथि याद है। बार-बार पूछने पर भी स्वामी रामदेव इस पर केवल मुस्कुरा भर देते हैं और कहते हैं कि मेरा जन्म तो संन्यास दीक्षा लेने के बाद ही हुआ है, इसलिए मेरी जन्मतिथि तो 9 अप्रैल, 1995 ही उचित है, जिस दिन मेरे दीक्षा गुरु आचार्य शंकरदेव ने मुझे संन्यास की दीक्षा दी थी। ‘वेब वर्ल्ड’ में स्वामी रामदेव की जो भी जन्मतिथि आज मौजूद है, उसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है। स्वामी रामदेव कहते हैं, ‘इंटरनेट की दुनिया का क्या है, जिसको जो उचित लगा, उसने वही तिथि लिख दी, लेकिन वास्तविकता तो यह है की अब मैं भी उस तिथि को अपनी जिंदगी से पूरी तरह से खुरच चुका हूं, इसलिए उस तिथि की चर्चा का कोई विशेष अर्थ नहीं है।’
योगेश्वर श्रीकृष्ण के यादव कुल में पैदा होने वाले बाबा रामदेव के बचपन का नाम रामकिशन था। रामकिशन की माता का नाम श्रीमती गुलाब देवी एवं पिता का नाम श्री रामनिवास यादव है। रामनिवास एवं गुलाब देवी के तीन बेटे और एक बेटी में, रामकिशन दूसरे नंबर की संतान हैं। बचपन में सभी भाई-बहन बेहद प्रेम के वातावरण में पले-बढे़। उनमें आपस में भी बहुत स्नेह था।
रामकिशन के पिता रामनिवास एक साधरण कीसान हैं। रामकिशन की मां गुलाब देवी बेहद धार्मिक प्रवृत्ति की महिला हैं। वह ईश्वर के संबंध् में कीसी तरह का तर्क-वितर्क नहीं करती। हर होनी को ईश्वर का आशीर्वाद मानकर स्वीकार कर लेतीं। भगवान पर उनकी अटूट आस्था है।
रामकिशन जब अपनी मां के गर्भ में थे तो मां को हमेशा लगता की यह बालक कुछ अलग है। पेट के अंदर उसकी अनुभूति मां को दिव्य लगती, लेकिन अज्ञानता के कारण वे इसे ठीक से नहीं समझ पायीं। रामकिशन का रूपांतरण जब स्वामी रामदेव के रूप में हुआ तो एक दिन मां ने उन्हें बताया की जब वे गर्भ में थे, उसी वक्त उन्हें लगने लगा था की यह संतान कुछ विशेष है। मां ने रामकिशन के घर छोड़ने के करीब 18 साल बाद पहली बार उन्हें बताया की गर्भ में ही उन्हें लगने लगा था की मेरी यह संतान न केवल मेरा, बल्कि संसार का कष्ट हरण करेगी। उनमें ऐसा विश्वास गर्भ में पल रहे रामकिशन के कारण हो रही दिव्य अनुभूतियों के कारण उत्पन्न हुआ था। जब तक रामकिशन मां के गर्भ में रहे, मां हमेशा स्वस्थ्य रहीं, खुश रहीं, उनके चेहरे पर एक आभा झलकती रही और उनके आसपास शांति निर्मिंत रही। अकसर गर्भवती माताओं को गर्भ में पल रहे अपने शिशु के कारण कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है, लेकिन रामकिशन की मां गुलाब देवी पूरे नौ महीने बेहद प्रसन्नचित्त रहीं। जन्म के बाद जब रामकिशन पालने में पहुंचे तो एक योगी की तरह शांतचित्त और ध्यान की मुद्रा में हमेशा लेटे रहते। न तो भूख लगने पर रोना और न ही दूसरे बच्चों की तरह कीसी की गोद में जाने के लिए मचल उठना-यह आदत कभी नहीं रही। पालने में अपने बेटे को एकदम से शांत देखकर मां कई बार चिंतित हो उठतीं और अपनी ममता बरसाते हुए उन्हें गोद में उठाकर दुलार करतीं, लेकिन रामकिशन कीसी ध्यानी की तरह उनके चेहरे को एकटक निहारा करते, उनकी आंखों में एकटक झांकते रहते और उनके चेहरे को अपनी नन्हीं-नन्हीं उंगलियों से टटोला करते।
मां गुलाब देवी बताती हैं, ‘जब रामकिशन कुछ बड़ा हुआ तो वह अपने हम उम्र लड़कों जैसा नहीं था। घंटों अकेले और गुमसुम रहता। एक जिद्दीपन उसके स्वभाव में था। जो कहता, वही करता। उसे कोई अपने विचार से डिगा न पाता था। पता नहीं क्यों, ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगा, कहने लगा मां मुझे तो संन्यासी बनना है। हम इसे हंस कर टाल जाते, लेकिन क्या पता था की जिसे हम हंसी समझ रहे हैं, उसी जिंदगी को वह आगे वरण करने वाला है।’
परम संतोषी स्वभाव के बालक रामकिशन ने अपने जीवन में कभी असंतोष को पनपने नहीं दिया। उनकी मां कहती हैं, ‘मुझे याद नहीं पड़ता की रामकिशन ने कभी कीसी चीज की मांग की हो या फिर कीसी वस्तु के लिए अन्य बच्चों की तरह कभी मचला हो। हां! मैं बड़ा होकर संन्यासी बनूंगा, यह जिद वह बारबार करता रहा।’
अपनी यादाश्त पर जोर डालते हुए मां गुलाब देवी बताती हैं, ‘रामकिशन उस वक्त शायद छठी कक्षा में था। यही वह समय था, जब उसका मन संन्यास की ओर तेजी से भागने लगा था।’ स्वामी रामदेव इससे सिंहमति जताते हुए कहते हैं, ‘मेरे अंदर संन्यास का भाव छठी कक्षा से ज्यादा प्रबल होने लगा था। भीतर तीव्र वेग उठता था। मेरे अंदर एक अभीप्सा जग गई थी की मुझे घर-बार छोड़कर बाहर निकलना है। मैं घर, संसार, गृहस्थी के लिए बना ही नहीं हूं।’
रामकिशन के पिता रामनिवास यादव कहते हैं, ‘रामकिशन छुटपन से ही बड़ा जिद्दी था। एक बार जो ठान लेता था, फिर उसे पूरा करके ही दम लेता था। उसने बचपन में ही ठान लिया था की उसे संन्यासी बनना है, तभी हम समझ गए थे की इसके मार्ग को डिगाना मुश्किल है, लेकिन हमने उसे खुद से जोड़े रखने का प्रयास जारी रखा। कीशोरावस्था में पहुंचने पर एक बार तो उसकी शादी की बात भी चलाई, लेकिन वह घर में टिका ही नहीं।’
एक घटना का जिक्र करते हुए रामनिवास यादव कहते हैं, ‘रामकिशन की जिद का पता हमें तब चला जब बेहद छुटपन में एक दिन वह मेरे पास बैठक में आया। वहां मैं गांव के अन्य बुजुर्गों के साथ बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहा था। हरियाणा के गांव में बैठक पर हुक्का पीने का पुराना रिवाज है। रामकिशन रोज हमें हुक्का पीते हुए देखता था, लेकिन एक दिन अचानक से मेरे पास आकर खड़ा हो गया और बोला, ‘आफा यह हुक्का-बीड़ी पीना मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं है। आज से आपको हुक्का-बीड़ी छोड़ना ही पड़ेगा। यदि आपने यह हुक्का पीना बंद नहीं किया तो आज से मैं भोजन त्याग दूंगा!’ और सचमुच उसने खाना-पीना छोड़ दिया! मुझे उसकी जिद के आगे हुक्का-बीड़ी पीना सदा के लिए छोड़ना पड़ा।’
भारत सहित दुनिया के लोग समझ सकते हैं की महज उस छोटे-से बालक की जिद कीसी खिलौने या सुंदर कपड़े के लिए नहीं, बल्कि देश में व्याप्त तंबाकू जैसे घातक नशे से मुक्ति के लिए थी। आज वह बालक रामकिशन बाबा रामदेव के रूप में भ्रष्टाचार से मुक्ति, कालाधन की वापसी, स्वदेशी को सम्मान एवं योग-आयुर्वेद व वैदिक शिक्षा के उन्नयन के लिए देश को मथ रहे हैं और देश के सोए हुए मानस को जगा रहे हैं।
उस वक्त बालक रामकिशन ने अपने पिता को अपनी जिद से तंबाकू छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया था और आज स्वामी रामदेव ने आजादी के बाद से भ्रष्टाचार, अराजकता, कुशासन, सत्ता में विदेशी हस्तक्षेप, तुष्टिकरण और जात-धर्म की राजनीति का पर्याय बन चुकी राजनीति से देश को मुक्त करने के लिए कोटि-कोटि जनता को बाध्य कर दिया! रामकिशन से रामदेव तक के इस सकर में यदि कुछ सर्वोपरी दिखता है तो वह केवल देशहित दिखता है, चाहे वह नशामुक्ति के रूप में इसकी शुरुआत करके हुई हो अथवा कांग्रेस मुक्ति के रूप में इसकी चरम परिणति पर पहुंच कर।
अपने पिता के साथ छुटपन से ही रामकिशन खेती और पशुपालन कर्म में जुट गए थे। स्कुल से आने के बाद वह खेती व पशुपालन कार्य में अपने पिता का हाथ बंटाते थे। गाय का गोबर एक छोटी टोकरी में भरकर उसे गोबर डाले जाने वाले स्थान पर प्रतिदिन फेंकना, छोटे रामकिशन का ही कार्य था। बचपन का शरीर नाजुक था। प्रतिदिन सिर पर गोबर लदी टोकरी उठाने के कारण रामकिशन का कपाल अंदर की ओर ध्ंसता चला गया। उसमें एकदम से खड्डा पड़ गया। स्वामी रामदेव हंसते हुए कहते हैं, ‘सिर पर गोबर से भरी टोकरी उठाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह गुरुकुल में भी चलता रहा। इसके कारण कपाल एकदम से बैठ गया था, उसमें गहरा खड्डा पड़ गया था। बड़ा होने पर जब जीवन में योग को अपनाया तो शीर्षासन भी करता था। शीर्षासन का अभ्यास करते-करते कपाल का यह खड्डा अपने आप भर गया और सिर समतल हो गया। यह मेरी स्वयं की उन सैकड़ों अनुभूतियों में से एक है, जो यह दर्शाती है की योग जीवन को न केवल अंदर से, बल्कि बाहर से भी बदल देता है।’
रामकिशन को बचपन में देश के महापुरुषों की कहानियां सुनने का बड़ा शौक था। रोटी बनाती मां के पास बैठकर रामकिशन चुल्हे में आंच लगाते और उनसे देश के महापुरुषों की कहानियां सुना करते। भगत सिंह, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद की कहानियां छोटे रामकिशन के अंदर उत्साह जगा जाती थी। वे मां से कहते, ‘मां यदि मैं भी आजादी से पहले देश में पैदा होता तो आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों की बाजी लगा सकता था।’ मां उनके लिए प्रेरणा दायी थी। मां के कारण बालक रामकिशन ने छुटपन में ही देशभक्ति का पाठ पढ़ लिया था। धुंधला ही सही, लेकिन कुछ-कुछ समझने लगे थे की वह जीवन में आखिर क्या पाना चाहते हैं?
स्वामी रामदेव के पिता रामनिवास बताते हैं, ‘अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार और कालेधन को लेकर आज जो आप स्वामी रामदेव की पीड़ा देख रहे हैं, वह कोई नई बात नहीं है, बल्कि वह तो इन कुरीतियों को दूर करने को लेकर बचपन से ही संवेदनशील रहा है। मुझे याद है, कर्ज में डूबे मेरे पड़ोसी कीसान ने आत्महत्या कर ली थी। उस वक्त रामकिशन बहुत छोटा था, लेकिन वह इसे देखकर इतना विचलित हो गया की रात भर रोता रहा, न खाया और न सोया। अगले दिन सुबह-सुबह बिना नश्ता कीए ही स्कुल पहुंच गया और मास्टर जी से पूछने लगा की उस कीसान की मदद सरकार ने क्यों नहीं की? मास्टर जी ने उसे बताया की इस देश की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। सरकारी योजनाएं जरूरतमंदों तक पहुंचने से पहले ही देश के नेता और नौकरशाह द्वारा लूट ली जाती हैं तो वह एकदम से तैश में आ गया था। रामकिशन ने घर आकर अपनी मां से कहा की बड़ा होकर वह देश से भ्रष्टाचार को समाप्त कर देगा। हमने तब इसे एक बालक का क्षणिक गुस्सा समझा था, लेकिन आज लगता है की बचपन का पाला हुआ वह गुस्सा ही उसके लिए भ्रष्टाचार के विरुद्द लड़ाई का हथियार