गणपूरक
आधुनिक शब्दावली में यह कोरम का पर्याय है। भारत में यह प्रथा अति प्राचीन काल से प्रचलित थी। विनयपिटक में बौद्ध संघ की सभाओं की कार्यप्रक्रिया का जो वर्णन है उनसे ज्ञात होता है कि संघ की सभाओं के नियम में एक यह भी था कि सदस्यों की निश्चित न्यूनतम उपस्थिति संख्या निर्दिष्ट विषय पर विचार करने के लिए बैठकों में अवश्य शामिल हो। ऐसा न होने पर उन बैठकों को वैध नहीं माना जाता था, फलत: उनके निर्णय भविष्य में किसी भी पूर्ण सभा द्वारा अवैध और अमान्य घोषित किए जा सकते थे। अत: इस व्यवस्था की पूर्ति आवश्यक थी। यह प्रथा प्राचीन भारतीय गणतंत्रों की केंद्रीय सभाओं में भी प्रचलित थी। संभवत: इसी कारण इसे गणपूर्ति की संज्ञा भी दी गई। बौद्धसंघ की स्थानीय सभाओं की बैठकों में बीस भिक्षुओं की उपस्थिति से गणपूर्ति की जाती थी। भगवान बुद्ध ने कहा था, हे भिक्षुओं! यदि कोई कार्य अवैध ढंग से गणपूर्ति के बिना ही कर लिया गया है तो उसे सही कार्य नहीं कह सकते और उसे नहीं किया जाना चाहिए था। इस व्यवस्था की सफलता के लिये एक अधिकारी नियुक्त किया जाता था, उसे गणपूरक कहते थे। बैठकों में गणपूर्ति सर्वदा बनी रहे, यही प्रयत्न करना उसका काम होता था, जिसमें वे कहीं भविष्य में अवैध न घोषित कर दी जाए। काशीप्रसाद जायसवाल ने बुद्धकालीन गणपूरक को आधुनिक ससंद अथवा विधानसभा का ह्विप (सचेतक) कहा है। बौद्ध संघ की भिन्न भिन्न बैठकों के निमित्त संभवत: अन्यान्य भिक्षु गणपूरक नियुक्त किए जाते थे।