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धर्मांतरण

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सेंट पॉल के रूपांतरण, इतालवी कलाकार कैरावैजियो (1571-1610) द्वारा एक 1600 सदी का चित्र

धर्मांतरण किसी ऐसे नये धर्म को अपनाने का कार्य है, जो धर्मांतरित हो रहे व्यक्ति के पिछले धर्म से भिन्न हो। एक ही धर्म के किसी एक संप्रदाय से दूसरे में होने वाले परिवर्तन (उदा। ईसाई बैप्टिस्ट से मेथोडिस्ट या मुस्लिम शिया से सुन्नी आदि) को सामान्यतः धर्मांतरण के बजाय पुनर्संबद्धता कहा जाता है।[1]

अनेक कारणों से लोग विभिन्न धर्मों में धर्मांतरित होते हैं, जिनमें विश्वास में हुए परिवर्तन के कारण स्वेच्छा से होने वाला सक्रिय धर्मांतरण,[2] द्वितीयक धर्मांतरण, मृत्यु-शैय्या पर होने वाला धर्मांतरण, किसी लाभ के लिये किया जाने वाला तथा वैवाहिक धर्मांतरण एवं बलपूर्वक किया जाने वाला धर्मांतरण शामिल हैं।

ईसाइयों का मानना है कि धर्मांतरण के लिये नई विश्वास प्रणाली को आत्मसात करना आवश्यक होता है। इसमें धर्मांतरित व्यक्ति की स्वयं की पहचान के लिये एक संदर्भ बिंदु निहित होता है और यह उस धर्म तथा संबद्धता दोनों के विश्वास तथा सामाजिक संरचना का मामला है।[3]

विशिष्ट रूप से इसमें एक नई विश्वास प्रणाली को ईमानदारी से स्वीकार करने की आवश्यकता होती है, लेकिन यह स्वयं को अन्य तरीकों, जैसे किसी पहचान समूह या आध्यात्मिक वंश में शामिल होकर, भी प्रस्तुत कर सकता है।

अपने लाभ के लिये किया जाने वाला धर्मांतरण या पुनर्संबद्धता एक पाखण्ड है, जो कभी-कभी अपेक्षाकृत मामूली कारणों से किया जाता है, जैसे किसी अभिभावक द्वारा अपने बच्चे का धर्मांतरण करवाना ताकि वह किसी विशिष्ट धर्म से जुड़े किसी अच्छे विद्यालय में प्रवेश पा सके, अथवा किसी व्यक्ति द्वारा इसलिये धर्मांतरण किया जाना, ताकि वह उस सामाजिक वर्ग में शामिल हो सके, जिसमें शामिल होने की वह इच्छा रखता है। जब लोग विवाह करते हैं, तब भी पति या पत्नी में से कोई अपने जीवन-साथी के धर्म में धर्मांतरित हो सकता है।

बलपूर्वक होने वाले धर्मांतरण में किसी जबरदस्ती के तहत दूसरे धर्म को अपनाया जाता है। संभव है कि इस स्थिति में धर्मांतरित व्यक्ति गुप्त रूप से अपने पूर्व धार्मिक विश्वास को बनाये रखे और, गुप्त रूप से, अपने मूल धर्म की पद्धतियों का पालन जारी रखते हुए बाहरी तौर पर नये धर्म का पालन दिखावे के लिये करता रहे। हो सकता है कि बलपूर्वक धर्मांतरित किया गया परिवार कुछ पीढ़ियां बीत जाने पर सच्चे दिल से नये धर्म को अपना ले।

अनुनय के द्वारा किसी दूसरे धर्म य विश्वास प्रणाली वाले व्यक्ति को धर्मांतरित करने का प्रयास धर्म-परिवर्तन कहलाता है। (नवदीक्षित देखें)

धर्मच्युत एक निन्दात्मक शब्द है, जिसका प्रयोग किसी धर्म या धार्मिक शाखा के सदस्यों द्वारा उस धर्म या शाखा का त्याग कर देने वाले व्यक्ति का उल्लेख करने के लिये किया जाता है।

अब्राहमिक धर्म

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यहूदी धर्म

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यहूदी धर्म को स्वीकार करने वाले नव-धर्मांतरितों के लिये यहूदी नियम के दिशानिर्देशों को “गियुर (giyur) ” कहा जाता है। संभावित धर्मांतरितों में यहूदी धर्म को अपनाने की स्वतःस्फूर्त इच्छा होनी चाहिये और इसका कोई अन्य उद्देश्य नहीं होना चाहिये। पुरूष धर्मांतरित को यहूदी नियम के अनुसार धार्मिक खतना करवाना पड़ता है (यदि उसका खतना पहले ही हो चुका है, तो रक्त एक प्रतीकात्मक बूंद बहाने के लिये एक सुई का प्रयोग किया जाता है और इस दौरान उपयुक्त आशीर्वचन कहे जाते हैं), तथा 613 मित्ज़्वोट व यहूदी नियम के पालन की शपथ लेनी होती है। धर्मांतरित व्यक्ति को अनिवार्य रूप से यहूदी समुदाय में शामिल होना पड़ता है और धर्मांतरण के पूर्व के अपने धर्मशास्र को अस्वीकार करना होता है। जल के एक छोटे तालाब, जिसे मिकवाह कहते हैं, में एक धार्मिक निमज्जन आवश्यक होता है।

हेलेनिस्टिक व रोमन काल में, कुछ फैरिसी लोग उत्सुक नवदीक्षित थे और पूरे साम्राज्य में उन्हें कुछ हद तक सफलता मिली।

कुछ यहूदी लोग भूमध्यसागरीय विश्व के बाहर यहूदी धर्म में धर्मांतरित हुए लोगों के भी वंशज हैं। यह ज्ञात है कि पहले कुछ कज़ार, एडोमाइट, ईथियोपियाई और साथ ही अनेक अरब, विशिष्ट रूप से येमन में, अतीत में यहूदी धर्म में धर्मांतरित हुए थे; आज पूरी दुनिया में लोग यहूदी धर्म में धर्मांतरित होते हैं। मूल रूप से "नवदीक्षित (proselyte)" शब्द यहूदी धर्म में धर्मांतरित होने वाले ग्रीक व्यक्ति का उल्लेख करने के लिये प्रयोग किया जाता था। छठीं सदी तक भी पूर्वी रोमन साम्राज्य (अर्थात बाइज़ेन्टाइन साम्राज्य) यहूदी धर्म में धर्मांतरण के विरूद्ध आदेश जारी करता रहा था, जिससे स्पष्ट है कि यह कार्य उस समय भी हो रहा था।

हालिया समय में, रिफॉर्म ज्यूडाइज़्म (Reform Judaism) आंदोलन के सदस्यों ने अंतर्धार्मिक विवाह करने वाले अपने सदस्यों के गैर-यहूदी जीवन-साथियों तथा यहूदी धर्म में रूचि रखने वाले गैर-यहूदियों को यहूदी धर्म में धर्मांतरित करने के लिये एक कार्यक्रम की शुरुआत की। उनका तर्क यह है कि यहूदियों के नरसंहार के दौरान इतने अधिक यहूदी मारे गये कि अब नये नवागतों को ढूंढना व उनका स्वागत करना अनिवार्य हो गया है। आर्थोडॉक्स व कंज़र्वेटिव यहूदियों द्वारा इस पद्धति को अवास्तविक तथा खतरनाक कहकर अस्वीकार कर दिया गया है। उनका कहना है कि इन प्रयासों के द्वारा यहूदी धर्म अपनाने और पालन करने में सरल दिखाई देता है, जबकि वास्तविकता यह है कि यहूदी धर्म में अनेक कठिनाइयां और त्याग आवश्यक होते हैं।

ईसाईयत में होने वाला धर्मांतरण किसी पूर्व गैर-ईसाई व्यक्ति का ईसाईयत के किसी रूप में होने वाला धार्मिक परिवर्तन है। इसकी सटीक आवश्यकताएं विभिन्न चर्चों व संप्रदायों के अनुसार भिन्न-भिन्न होती हैं। मुख्यतः इसमें पाप की स्वीकारोक्ति और प्रायश्चित्त तथा ईसा मसीह (की प्रायश्चित्त के लिये हुई मृत्यु और पुनरूत्थान) में विश्वास के द्वारा एक ऐसा जीवन जीने का निर्णय शामिल होता है, जो ईश्वर को स्वीकार्य हो तथा पवित्र हो। यह सब संबंधित व्यक्ति की इच्छा से किया जाता है और एक सच्चे धर्मांतरण के लिये विशिष्ट आवश्यकता है। इस प्रकार, स्वाभाविक रूप से किसी का सच्चा धर्मांतरण बलपूर्वक नहीं किया जा सकता। जहां तक ईसाई विश्वास का प्रश्न है, बलपूर्वक किया जाने वाला धर्मांतरण एक विरोधाभास है क्योंकि सच्चा धर्मांतरण कभी भी किसी मनुष्य पर लादा नहीं जा सकता। धर्मांतरितों से लगभग सदैव ही बपतिस्मा की उम्मीद की जाती है।

बपतिस्मा

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कैथलिक, आर्थोडॉक्स व अनेक प्रोटेस्टेंट संप्रदाय बच्चों में अपनी अवस्था की समझ विकसित होने से पूर्व ही नवजात बपतिस्मा किये जाने को प्रोत्साहित करते हैं। रोमन कैथलिकवाद तथा प्रोटेस्टेंटवाद के कुछ उच्च चर्च वाले रूपों में, बपतिस्मा किये जाने वाले बच्चों से यह अपेक्षित होता है कि वे पूर्व-किशोरावस्था में पुष्टिकरण की कक्षाओं में शामिल हों। पूर्वी आर्थोडॉक्सी पद्धति, बपतिस्मा के तुरंत बाद, सभी धर्मांतरितों पर पुष्टि के समतुल्य, विलेपन (chrismation) किया जाता है, जो कि वयस्कों व नवजात शिशुओं दोनों पर समान रूप से लागू होता है।

बपतिस्मा की विधियों में निमज्जन, छिड़काव (फुहार) तथा बौछार (अभिसिंचन) शामिल हैं।[4] ऐसे वयस्कों या युवा लोगों, जो समझदारी की आयु तक पहुंच चुके हों और अपने व्यक्ति धार्मिक निर्णय ले पाने में सक्षम हों, के द्वारा प्राप्त किया जाने वाले बपतिस्मा का उल्लेख कंज़र्वेटिव व इवैन्जेलिकल प्रोटेस्टेंट समूहों में विश्वासकर्ता के बपतिस्मा के रूप में किया जाता है।

यह व्यक्ति के ईसाई बनने के पूर्व निर्णय की एक सार्वजनिक घोषणा के रूप में होना अभीष्ट है।[5] कुछ ईसाई समूह, जैसे कैथलिक, चर्चेस ऑफ क्राइस्ट तथा क्रिस्टाडेल्फियाई, मानते हैं कि बपतिस्मा मोक्ष प्राप्ति के लिये आवश्यक है।

ईसा को स्वीकार करना और पाप का परित्याग करना

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चित्र:RepentanceisContrition&faith.jpg
ऑग्सबर्ग कन्फेशन (Augsburg Confession) प्रायश्चित्त को दो भागों में बांटता है: "पहला पश्चाताप है, अर्थात पाप के ज्ञान के माध्यम से अंतरात्मा को दण्ड देने वाले भय; दूसरा विश्वास है, जो कि धर्मोपदेश या पाप-क्षमा से उत्पन्न हुआ है और मानता है कि ईसा के लिये, पापों को क्षमा कर दिया गया है, अंतरात्मा को शांति प्रदान करता है और इसे भय से मुक्त करता है।"[6]

धर्मांतरण से केवल धार्मिक पहचान में होने वाला एक सरल परिवर्तन ही नहीं, बल्कि मूल्यों में परिवर्तन के द्वारा स्वभाव में परिवर्तन (पुनर्जीवन) होना अपेक्षित है। ग्रीक शब्द मेटानोइया (metanoia) का अनुवाद करने पर बने लैटिन शब्द कॉन्वर्सियो (conversio), का शाब्दिक अर्थ "दूसरे मार्ग पर जाना" या "अपना मन बदलना" होता है। ईसाईयत के अनुसार, एक धर्मांतरित व्यक्ति वह है, जो अपने पाप को व्यर्थ मानकर उसका त्याग कर देता है और इसके बजाय ईसा मसीह के परम महत्व को संभालकर रखता है; धर्मांतरित व्यक्ति ईसा मसीह की त्यागमयी मृत्यु व पुनरूत्थान में ईसा के महत्व को देखता है और पाप का परित्याग करता है।[7]

ईसाई धर्मांतरित से यह विश्वास करने की उम्मीद की जाती है कि ईश्वर से उसके पृथक्करण को व्यक्तिगत नैतिक आत्म-संतुष्टि प्राप्त करने की इच्छा से किये जाने वाले अच्छे कार्यों के द्वारा नहीं जीता जा सकता; इसके बजाय, उसे ईसा के रक्त में अपने पापों के लिये क्षमा प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिये और अपनी इच्छाओं को ईसा की धार्मिकता से आच्छादित करना चाहिये। चूंकि धर्मांतरण मूल्यों में एक ऐसा परिवर्तन है, जो ईश्वर को अपनाता है और पाप को अस्वीकार करता है, अतः इसमें पवित्रता के एक ऐसे जीवन, जो कि टार्सस के पॉल द्वारा वर्णित है और जिसका उदाहरण ईसा मसीह ने प्रस्तुत किया है, के प्रति व्यक्तिगत प्रतिबद्धता शामिल होती है। कुछ प्रोटेस्टेंट परंपराओं में, इसे "ईसा को व्यक्ति के उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करना तथा उसे अपना रक्षक मानकर उसका अनुसरण करना” कहा जाता है।[8] एक अन्य संसकरण में, 1910 कैथलिक शब्दकोश “धर्मांतरण” को “पाप की अवस्था से पश्चाताप की अवस्था की ओर, धर्मभ्रष्टता से जीवन के एक अधिक सच्चे व गंभीर तरीके की ओर, अविश्वास से विश्वास की ओर, पाखंड से सच्चे धर्म की ओर मोड़ने या परिवर्तित करने वाले कार्य” के रूप में परिभाषित किया गया। धर्मांतरण की पूर्वी आर्थोडॉक्स समझ बपतिस्मा की रस्म में दिखाई देती है, जिसमें धर्मांतरित व्यक्ति सार्वजनिक रूप से अपने पापों का प्रायश्चित्त करते समय पश्चिम दिशा की ओर मुंह करके खड़ा होता है तथा प्रतीकात्मक रूप से शैतान पर थूकता है और इसके बाद “राजा व ईश्वर के रूप में” ईसा की आराधना करने के लिये पूर्व की ओर मुड़ता है।

उत्तरदायित्व

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अधिकांश ईसाइयों का विश्वास है कि धर्मपरिवर्तन (proselytism), जिसे ईसा मसीह के वचनों व कर्मों में धर्मोपदेश को साझा करने के रूप में समझा जाता है, प्रत्येक ईसाई का उत्तरदायित्व है। नये करार (New Testament) के अनुसार, ईसा ने अपने शिष्यों को “सभी राष्ट्रों में जाने व शिष्य बनाने” का आदेश दिया था [Matthew 28:19], जिसे सामान्यतः ग्रेट कमीशन के नाम से जाना जाता है। तदनुसार, अनेक ईसाइयों द्वारा प्रचारवाद (evangelism)—"सुसमाचार का प्रचार करना"—का पालन किया जाता रहा है। कुछ प्रचारवादी प्रोटेस्टेंट मानते हैं कि ग्रेट कमीशन की पूर्ति के लिये, प्रत्येक ईसाई को अनिवार्य रूप से अपने संपर्क में आने वाले लगभग प्रत्येक व्यक्ति को धर्मांतरित करने के प्रयास के लिये तैयार रहना चाहिये.[उद्धरण चाहिए] ईसाइयत के अन्य रूप, जैसे रोमन कैथलिकवाद तथा पूर्वी आर्थोडॉक्सी, मानते हैं कि धर्मोपदेश की व्याख्या अचूक और विश्वासपूर्ण तरीके से नहीं की जा सकती, इसके बजाय वे उदाहरण के द्वारा प्रचारवाद का समर्थन करते हैं।[उद्धरण चाहिए]

पुनर्संबद्धता

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एक ईसाई संप्रदाय से किसी अन्य में स्थानांतरण में सदस्यता का एक अपेक्षाकृत सरल स्थानांतरण शामिल हो सकता है, विशेषतः यदि एक त्रिमूर्तिवादी (Trinitarian) संप्रदाय से दूसरे में जाना हो और यदि व्यक्ति त्रिमूर्ति के नाम पर जल बपतिस्मा ले चुका हो। यदि ऐसा नहीं है, तो नये चर्च के द्वारा व्यक्ति का बपतिस्मा या पुनर्बपतिस्मा करने की आवश्यकता हो सकती है। कुछ संप्रदायों, जैसे एनाबैप्टिस्ट परंपरा को मानने वालों, में पहले बपतिस्मा ले चुके ईसाइयों का पुनर्बपतिस्मा आवश्यक होता है। पूर्वी आर्थोडॉक्स चर्च ईसाइयत के किसी अन्य संप्रदाय से आर्थोडॉक्सी (जिसे एक सच्चा चर्च माना जाता है) में होने वाले स्थानांतरण को धर्मांतरण व प्रायश्चित्त की ही एक श्रेणी मानता है, हालांकि सदैव ही पुनर्बपतिस्मा की आवश्यकता नहीं होती।

ईसाइयत में धर्मांतरण की प्रक्रिया में ईसाई संप्रदायों के बीच कुछ अंतर होते हैं। अधिकांश प्रोटेस्टेंट मोक्ष प्राप्ति के लिये विश्वास के द्वारा धर्मांतरण को मानते हैं। इस समझ के अनुसार, व्यक्ति अपने रक्षक के रूप में ईसा मसीह के प्रति विश्वास की घोषणा करता है। हालांकि कोई व्यक्ति यह निर्णय निजी तौर पर ले सकता है, लेकिन सामान्यतः इसके लिये बपतिस्मा किया जाना और किसी संप्रदाय या चर्च का सदस्य बनना आवश्यक होता है। इन परंपराओं में, ईसाईयत के इन बुनियादी सिद्धांतों, कि ईसा मसीह की मृत्यु हुई थी, उन्हें दफनाया गया था और पाप को क्षमा करने के लिये वे पुनर्जीवित हुए थे, को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने पर व्यक्ति को ईसाई माना जाता है।[उद्धरण चाहिए]

प्रोटेस्टेंट विश्वासों के बीच तुलना

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यह सारिणी तीन भिन्न प्रोटेस्टेंट विश्वासों के पारंपरिक दृष्टिकोण का सारांश प्रस्तुत करती है।

विषय लूथरनवाद (Lutheranism) कैल्विनवाद (Calvinism) आर्मिनियनवाद (Arminianism)
धर्मांतरण कृपा के माध्यम से, निरोधनीय किसी माध्यम के बिना, अनिरोधनीय इसमें स्वेच्छा शामिल होती है और यह निरोधनीय होता है

मुख्य लेख: दावाह, इस्लाम में परिवर्तित लोगों की सूची

एक नव-धर्मांतरित मुस्लिम को मुल्लाफ़ कहा जाता है। इस्लाम के पांच स्तंभ, या आधार हैं, लेकिन इनमें से प्रमुख और सर्वाधिक महत्वपूर्ण यह विश्वास करना है कि ईश्वर व सृष्टिकर्ता केवल एक ही है, जिसे अल्लाह (ईश्वर के लिये अरबी शब्द) कहते हैं और यह कि इस्लामी पैगंबर, मुहम्मद, उनके अंतिम और आखिरी संदेश-वाहक हैं। किसी व्यक्ति को उसी क्षण से इस्लाम में धर्मांतरित मान लिया जाता है, जब वह निष्ठापूर्वक विश्वास की घोषणा करता है, जिसे शहादा कहते हैं।

इस्लाम की शिक्षा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जन्म से मुस्लिम ही होता है क्योंकि जन्म लेने वाले प्रत्येक शिशु का स्वाभाविक झुकाव अच्छाई की ओर व केवल एक सच्चे ईश्वर की आराधना की ओर होता है, लेकिन उसके अभिभावक व समाज उसे इस सीधे मार्ग से भटका सकते हैं। जब कोई व्यक्ति इस्लाम को स्वीकार करता है, तो ऐसा माना जाता है कि वह अपनी मूल स्थिति में लौट आया है। हालांकि इस्लाम की ओर धर्मांतरण इसके सर्वाधिक समर्थित तत्वों में से एक है, लेकिन इस्लाम से किसी अन्य धर्म में धर्मांतरण को स्वधर्म-त्याग का पाप माना जाता है और कुछ व्याख्याओं के अनुसार और कुछ न्यायिक क्षेत्राधिकारों के अंतर्गत इसके लिये मृत्यु-दंड का प्रावधान है।

इस्लाम में, खतना एक सुन्नाह रिवाज है, जिसका कुरान में ज़िक्र नहीं किया गया है। मुख्य विचार यह है कि इसका पालन करना अनिवार्य नहीं है और यह इस्लाम में प्रवेश करने की शर्त नहीं है। शफी` (Shafi`i) तथा हनबली (Hanbali) संप्रदायों में इसे अनिवार्य माना जाता है, जबकि मालिकी (Maliki) और हनाफी (Hanafi) संप्रदायों का मानना है कि यह केवल अनुशंसित है। हालांकि, यह किसी व्यक्ति द्वारा इस्लामिक पद्धतियों को अपनाये जाने के लिये पूर्व-शर्त नहीं है और न ही किसी व्यक्ति द्वारा खतना करने से इंकार किया जाना कोई पाप है। यह इस्लाम के पांच स्तंभों या विश्वास के छः आधारों में से एक नहीं है।

बहाई धर्म

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बहाई धर्म सक्रियता से धर्मांतरितों की खोज में रहता है। धर्म-परिवर्तन और मिशनरी कार्य जोरों पर किये जाते हैं, लेकिन इन्हें क्रमशः “शिक्षा देना” और “मार्गदर्शन करना” कहा जाता है। अपने धर्म को दूसरों के साथ साझा करते समय बहाई लोग “एक श्रवण प्राप्त करने” के प्रति सतर्क होते हैं–जिसका अर्थ यह सुनिश्चित करना होता है कि वे जिस व्यक्ति को शिक्षा देने का प्रस्ताव दे रहे हैं, वह उनकी बात सुनने को तैयार है। उनके द्वारा अपनाये गये समुदायों में, लोगों के सांस्कृतिक आधार का स्थान लेने का प्रयास करने के बजाय "बहाई मार्गदर्शकों" को समाज में शामिल होने और अपने पड़ोसियों के साथ रहने और कार्य करने के दौरान बहाई सिद्धांतों को लागू करने और बाँटने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।

बहाई लोग सभी धर्मों की दिव्य उत्पत्ति को मान्यता देते हैं और यह मानते हैं कि ये धर्म क्रमिक रूप से एक दिव्य योजना के एक भाग के रूप में उत्पन्न हुए (प्रगतिशील प्रकटीकरण), तथा प्रत्येक नया प्रकटीकरण अपने पूर्ववर्तियों का स्थान लेता है और उन्हें पूर्ण करता है। बहाई लोग अपने स्वयं के धर्म को नवीनतम (परंतु अंतिम नहीं) मानते हैं और उनका विश्वास है कि इसकी शिक्षाएं – जो कि मानवता की एकात्मता के सिद्धांत के आस-पास केंद्रित है – वैश्विक समुदाय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सर्वाधिक उपयुक्त हैं।

अधिकांश देशों में, धर्मांतरंण के लिये केवल विश्वास की घोषणा करने वाले एक कार्ड को भरना होता है। इसमें बहाउल्लाह – इस धर्म के संस्थापक – को वर्तमान समय के लिये ईश्वर के दूत मानने, उनकी शिक्षाओं के प्रति जागरूक होने व उन्हें स्वीकार करने, तथा उनके द्वारा स्थापित संस्थाओं व नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनने की घोषणा शामिल होती है।

बहाई धर्म में धर्मांतरण के साथ ही सभी ज्ञात धर्मों की आम बुनियाद में स्पष्ट विश्वास, मानवता की एकता और वृहत् स्तर पर समुदाय की सक्रिय सेवा, विशेषतः उन क्षेत्रों में, जिनसे एकता व मैत्री को बढ़ावा मिले, के प्रति एक प्रतिबद्धता शामिल होती है। चूंकि बहाई धर्म में कोई पुरोहित नहीं होते, अतः इस धर्म में आने वाले धर्मांतरितों को सामुदायिक जीवन के सभी पहलुओं में सक्रिय होने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। यहां तक कि हाल ही में धर्मांतरित हुए किसी व्यक्ति को भी स्थानीय आध्यात्मिक सभा (Local Spiritual Assembly) – सामुदयिक स्तर पर मार्गदर्शक बहाई संस्था – में कार्य करने के लिये चुना जा सकता है।[9][10]

धार्मिक धर्म

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हिंदू धर्म

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हिंदू धर्म धर्मांतरण का समर्थन नहीं करता और इसमें धर्मांतरण के लिये कोई रस्म मौजूद नहीं है। यह स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं है कि कोई व्यक्ति हिंदू कब बनता है क्योंकि हिंदू धर्म ने कभी भी दूसरे धर्मों को अपने प्रतिद्वंद्वियों के रूप में नहीं देखा। अनेक हिंदुओं की धारणा यह है कि ‘हिंदू होने के लिये व्यक्ति को हिंदू के रूप में जन्म लेना पड़ता है’ और ‘यदि कोई व्यक्ति हिंदू के रूप में जन्मा है, तो वह सदा के लिये हिंदू ही रहता है’; हालांकि, भारतीय कानून किसी भी ऐसे व्यक्ति को हिंदू के रूप में मान्यता प्रदान करता है, जो स्वयं को हिंदू घोषित करे। हिंदू धर्म के अनुसार, केवल एक ही परम सत्य है (इस सत्य या ब्राह्मण का ज्ञान न होना ही शोक का कारण है और आत्माएं तब तक पुनर्जन्म के शाश्वत चक्र में फंसी रहती है, जब तक उन्हें इस सत्य का ज्ञान न हो जाए) और सत्य तक “पहुंचने” के अनेक पथ—अन्य धर्मों द्वारा पालन किये जाने वाले पथों सहित— हैं। धर्म के लिये संस्कृत शब्द “मार्ग” का शाब्दिक अर्थ पथ होता है। धर्मांतरण की अवधारणा ही एक विरोधाभास है क्योंकि हिंदू ग्रंथ वेद तथा उपनिषद संपूर्ण विश्व को एक ही सत्य को देवता मानने वाला एक परिवार मानते हैं।[11][12]

हिंदू धर्म में आस्था के पुनः प्रवर्तन का सबसे पहला उल्लेख शंकराचार्य के काल में आठवीं शताब्दी का है, जब जैन धर्म और बौद्ध धर्म प्रभावी बन गए थे। हिंदू धर्म में आक्रमण और सामूहिक धर्मांतरण का कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। अनेक पीढ़ियों के संस्कृतीकरण के बाद गुज्जरों, अहोमों और हूणों सहित कई विदेशी समूह हिंदू धर्म में धर्मांतरित हुए। पूरी अठारहवीं शताब्दी के दौरान हुए संस्कृतीकरण के परिणामस्वरूप मणिपुर के आदिवासी समुदाय स्वयं को हिंदू मानने लगे।

हाल ही में, हिंदू धर्म से धर्मांतरित हो चुके लोगों का पुनः धर्मांतरण करने की अवधारणा प्रचलित हुई है। यह पुनः धर्मांतरण सदैव ही अन्य प्रमुख धर्मों के प्रचारीकरण (evangelization), धर्म-परिवर्तन तथा धर्मांतरण गतिविधियों के खतरे की प्रतिक्रिया के रूप में ही होता रहा है; अनेक आधुनिक हिंदू उनके धर्म से (किसी भी) अन्य धर्म में धर्मांतरण के विचार के खिलाफ़ हैं।[13] हिंदू पुनर्जागरण आंदोलनों के विकास के परिणामस्वरूप ऐसे लोगों के पुनः धर्मांतरण के कार्य में गति आई है, जो पहले हिंदू थे या जिनके पूर्वज हिंदू रहे थे। आर्य समाज (भारत) तथा परिषद हिंदू धर्म (इंडोनेशिया) जैसे राष्ट्रीय संगठन ऐसे पुनः धर्मांतरणों के द्वारा हिंदू बनने की इच्छा रखने वालों की सहायता करते हैं।

अमेरिका में जन्मे हिंदू गुरू, सतगुरू शिवाय सुब्रमुनियस्वामी ने हाऊ टू बिकम अ हिंदू – अ गाइड फॉर सीकर्स एन्ड बॉर्न हिन्दूज़ (How to Become a Hindu - A Guide for Seekers and Born Hindus) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में, सुब्रमुनियस्वामी ने उस कार्य, जो उनके अनुसार “हिंदू धर्म में एक नैतिक धर्मांतरण” है, के लिये एक व्यवस्थित पद्धति, हिंदू धर्म में धर्मांतरित होने वाले लोगों के कथन, एक हिंदू वास्तव में क्या होता है, इस बारे में हिंदू प्राधिकारियों द्वारा दी गईं परिभाषाएं आदि प्रस्तुत की हैं।

सिख धर्म

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सिख धर्म द्वारा खुले तौर पर धर्म परिवर्तन किये जाने की जानकारी नहीं है, लेकिन इसमें धर्मांतरितों को स्वीकार किया जाता है।सिख धर्म भी केवल एक ईश्वर में विश्वास रखता है। और किसी जाति या अंधविश्वास को नहीं माना जाता।

जैन धर्म

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जैन धर्म किसी भी ऐसे व्यक्ति को स्वीकार करता है, जो उनके धर्म को अपनाना चाहता हो। जैन धर्म में धर्मांतरित होने की इच्छा रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिये शाकाहारी होना तथा अर्हतों व सिद्धों को अपने तीर्थंकरों के रूप में स्वीकार करना अनिवार्य होता है।

बौद्ध धर्म

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पारंपरिक रूप से नव बौद्ध किसी भिक्षु, भिक्षुणी या ऐसे ही किसी प्रतिनिधि की “शरण लेते हैं” (तीन रत्नों — बुद्ध, धर्म, संघ — के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं)। बौद्ध मतानुयायी अक्सर एकाधिक धार्मिक पहचान रखते हैं और अपने धर्म को (जापान में) शिंतो के साथ या (चीन में; पारंपरिक चीनी धर्म के साथ) ताओवाद और कन्फ्यूशियसवाद के साथ संयोजित करते हैं।

बौद्ध-धर्म की समय-रेखा के दौरान, जब बौद्ध धर्म संपूर्ण एशिया में फैला, तो पूरे देशों और क्षेत्रों के धर्मांतरण की घटनाएं अक्सर होती थीं। उदाहरणार्थ, बर्मा में ग्यारहवीं शताब्दी में, राजा अनोरथ ने अपने पूरे देश को थेरवाद बौद्ध धर्म में धर्मांतरित कर दिया। बारहवीं शताब्दी के अंत में, जयवर्मन सप्तम ने खमेर लोगों के थेरवाद बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की भूमिका तैयार की। सत्रहवीं सदी में, जापान में एडो काल के दौरान, ईसाईयत (जो पुर्तगालियों द्वारा जापान लाई गई थी) को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया और समस्त प्रजाजनों को बौद्ध या शिंतो मंदिरों में पंजीयन करवाने का आदेश दिया गया। २०वी सदी के मध्य में भीमराव आंबेडकर ने १० लाख हिंदू दलितों को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी, यह विशाल धर्मांतरण विश्व इतिहास का सबसे बड़ा धर्मांतरण है।[उद्धरण चाहिए] क्षेत्रों और समुदायों का बौद्ध धर्म में सामूहिक धर्मांतरण आज भी होता है, उदाहरणार्थ, भारत में दलित बौद्ध आंदोलन में संगठित सामूहिक धर्मांतरण हर वर्ष लाखों की संख्या में होते रहे हैं।[उद्धरण चाहिए]

बौद्ध धर्म के कुछ आंदोलनों में धर्मांतरण को प्रोत्साहन देने के अपवाद भी हो सकते हैं। उदाहरणार्थ, तिब्बती बौद्ध धर्म में, वर्तमान दलाई लामा धर्मांतरितों को जीतने के सक्रिय प्रयासों को हतोत्साहित करते हैं।

अन्य धर्म व संप्रदाय

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नये धार्मि्क आंदोलनों (एनआरएम/NRMs) में धर्मांतरण के साथ विवाद जुड़े हुए हैं। संप्रदाय-विरोधी आंदोलन द्वारा वैचारिक सुधार या यहां तक कि मतारोपण (brainwashing) शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। अक्सर वे कुछ विशिष्ट एनआरएम (NRMs) को संप्रदाय करार देंगे। संप्रदाय शब्द की अनेक भिन्न परिभाषाएं हैं। एनआरएम (NRMs) अत्यधिक विविधतापूर्ण होते हैं और यह स्पष्ट नहीं है कि क्या एनआरएम (NRMs) में होने वाला धर्मांतरण मुख्यधारा में होने वाले धर्मांतरण से भिन्न है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि किसी भी एनआरएम (NRMs) के पहले दशक या उसके आस-पास की अवधि में, इसके सदस्यों का ज़बर्दस्त बहुमत अनिवार्य रूप से धर्मांतरित होना चाहिये (क्योंकि यदि उस एनआरएम (NRM) के सदस्यों की पर्याप्त संख्या न रही होती, जो उसी में पले-बढ़े हैं, तो इतने लंबे समय तक उसका अस्तित्व भी न रहा होता)। यह भी स्पष्ट है कि अपने जन्म के समय मुख्यधारा का प्रत्येक धर्म भी अवश्य ही इस चरण से गुज़रा होगा। नए धार्मिक आंदोलनों में मतारोपण विवाद भी देखें।

संयुक्त राज्य अमेरिका और नीदरलैण्ड्स दोनों में हुए अनुसंधानों ने यह प्रदर्शित किया है कि कुछ विशिष्ट भागों और राज्यों में मुख्यधारा के चर्चों में सहभागिता में कमी तथा किसी नए धार्मिक आंदोलन के सदस्य बननेवाले लोगों के प्रतिशत के बीच एक सकारात्मक अंतर्संबंध है। यही बात न्यू-एज (New Age) केंद्रों की मौजूदगी पर भी लागू होती है।[14][15] डच अनुसंधान में जेहोवाह’स विटनेसेस (Jehovah's Witnesses) (हालांकि अनेक पूर्व मंत्रियों, उपयाजकों, पादरियों और ननों सहित अधिकांश जेडब्ल्यू (JW's) पहले धार्मिक रहे थे) और लैटर डे सेंट (Latter Day Saint) आंदोलन/मॉर्मोनवाद को भी एनआरएम (NRMs) में शामिल किया गया था (जो कि इस अनुसंधान का अधिक सूचक था)।[तथ्य वांछित]

चर्च ऑफ साइंटोलॉजी (Church of Scientology) “तनाव मुक्ति परीक्षणों” का प्रदान करके धर्मांतरितों को आकर्षित करने का प्रयास करता है (परीक्षण का चित्र देखें)। अन्य धर्मों के विपरीत साइंटोलॉजी में धर्मांतरित व्यक्ति के लिये यह आवश्यक होता है कि चर्च में शामिल होने से पूर्व वह अनुबंधों पर हस्ताक्षर करे।

इस पैमाने के दूसरे छोर पर वे धर्म हैं, जो किसी धर्मांतरित को स्वीकार नहीं करते, या ऐसा बहुत ही दुर्लभ तौर परकरते हैं। अक्सर ये अपेक्षाकृत छोटे, संकीर्ण-बनावट वाले अल्पसंख्यक धर्म होते हैं, जैसे याज़िदी, द्रुज़ और मैंडियन।

चीनी पारंपरिक धर्म में सदस्यता के लिये स्पष्ट मापदंडों का अभाव है और इसलिये धर्मांतरण के लिये भी कोई स्पष्ट मापदंड मौजूद नहीं हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक गैर-ईसाई धर्म — याज़िदी, द्रुज़ और मैंडियन सहित — धर्मांतरण के लिये आवेदन करने वाले सभी आवेदनकर्ताओं को अस्वीकृत कर देते हैं। शेकर्स (Shakers) तथा हिजड़ों के कुछ भारतीय भातृ-समूह प्रजनन की अनुमति नहीं देते, अतः इनका प्रत्येक सदस्य धर्मांतरित होता है।

अंतर्राष्ट्रीय कानून

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मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ के वैश्विक घोषणा-पत्र (United Nations Universal Declaration of Human Rights)]] में धर्मांतरण को एक मानवाधिकार के रूप में परिभाषित किया गया है: "प्रत्येक व्यक्ति के पास विचार, विवेक और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार है; इस अधिकार में अपने धर्म या आस्था को बदलने की स्वतंत्रता शामिल है।..." (धारा18). इसके बावजूद, कुछ समूह धर्मांतरण को रोकते या प्रतिबंधित करते हैं (नीचें देखें)।

इस घोषणा-पत्र के आधार पर यूनाइटेड नेशन्स कमीशन ऑन ह्युमन राइट्स (United Nations Commission on Human Rights) (यूएनसीएचआर [UNCHR]) ने नागरिक व राजनैतिक अधिकारों के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्र (International Covenant on Civil and Political Rights) का मसौदा तैयार किया, जो कि एक कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि है। इसके अनुसार “प्रत्येक व्यक्ति के पास विचार, विवेक और धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार होगा. इस अधिकार में अपनी इच्छानुसार किसी धर्म या आस्था का पालन करने या उसे अपनाने की स्वतंत्रता सम्मिलित होगी..." (धारा 18.1). "किसी भी व्यक्ति पर ऐसा कोई दबाव नहीं डाला जा सकेगा, जिससे अपनी इच्छानुसार किसी धर्म या आस्था का पालन करने या उसे अपनाने की उसकी स्वतंत्रता बाधित होती हो" (धारा 18.2).

सन 1993 में (यूएनसीएचआर [UNCHR]) ने इस धारा पर एक सामान्य टिप्पणी (General Comment) जारी की: "समिति का यह भी मत है कि किसी धर्म या आस्था ‘का पालन करने या इसे अपनाने’ की स्वतंत्रता में किसी धर्म या आस्था का चयन करने की स्वतंत्रता भी आवश्यक रूप से निहित है, जिसमें व्यक्ति के वर्तमान धर्म या आस्था के स्थान पर किसी अन्य का चयन करने अथवा नास्तिक दृष्टिकोण अपनाने का अधिकार सम्मिलित है [...] धारा 18.2 विश्वासकर्ताओं या गैर-विश्वासकर्ताओं को उनकी धार्मिक आस्थाओं और धार्मिक समूहों के साथ जुड़े रहने, उनके धर्म या आस्था का खण्डन करने अथवा उन्हें धर्मांतरण करने के लिये बाध्य हेतु शारीरिक बल-प्रयोग करने या दण्डात्मक प्रावधान लागू करने की धमकी देने सहित, ऐसे किसी भी दबाव को प्रतिबंधित करती है, जो किसी धर्म या आस्था का पालन करने या उसे अपनाने के किसी व्यक्ति के अधिकार को बाधित करता हो।" (सीसीपीआर/सी/21/पुनरीक्षण 1/अनुवृद्धि 4, सामान्य टिप्पणी सं. 22; प्रभाव जोड़ा गया [CCPR/C/21/Rev.1/Add.4, General Comment No. 22.; emphasis added])

कुछ देश स्वैच्छिक, प्रेरित धर्मांतरण को संगठित धर्मांतरण से अलग करते हैं और इसे प्रतिबंधित करने का प्रयास करते हैं। इनके बीच की सीमा-रेखाको सरलता से परिभाषित नहीं किया जा सकता: एक व्यक्ति जिसे वैध ईसाईकरण या साक्ष्य-आचरण मानता हो, कोई अन्य व्यक्ति उसे हस्तक्षेप करने वाला और अनुपयुक्त कार्य मान सकता है। क्लीवलैंड यूनिवर्सिटी की ‘जर्नल ऑफ लॉ एन्ड हेल्थ’ में प्रकाशित डॉ॰ सी. डेविस के एक लेख का यह उद्धरण ऐसे व्यक्तिपरक दृष्टिकोणों से उत्पन्न हो सकने वाली समस्याओं का एक दृष्टांत प्रस्तुत करता है: "यूनियन ऑफ अमेरिकन हिब्रू कॉन्ग्रिगेशन्स (Union of American Hebrew Congregations) के अनुसार, ज्यूज़ फॉर जीसस (Jews for Jesus) तथा हिब्रू क्रिश्चियन्स (Hebrew Christians) दो सर्वाधिक खतरनाक संप्रदाय हैं और इनके सदस्य डीप्रोग्रामिंग के लिये उपयुक्त उम्मीदवार हैं। संप्रदाय-विरोधी ईसाई... विरोध करते हैं कि 'आक्रामकता और नये अनुयायी बनाना ... सच्ची ईसाईयत की बुनियाद हैं,' और यह कि ज्यूज़ फॉर जीसस तथा कैम्पस क्रुसेड फॉर क्राइस्ट को संप्रदायों के रूप में चिह्नित नहीं किया जाना चाहिये। इसके अलावा, हिब्रु क्रिश्चियन ‘संप्रदाय’ की एक सभा पर शारीरिक आक्रमण करने वाले विशिष्ट हैसिडिक समूहों को सेंट्रल कॉन्फरेंस ऑफ अमेरिकन रब्बीज़ के अध्यक्ष ने स्वयं एक ‘संप्रदाय’ के रूप में चिह्नित किया है और उनकी तुलना रेवरेंड मून के अनुयायीयों के साथ की है।"

पूर्व सोवियत यूनियन के पतन के बाद से, रशियन आर्थोडॉक्स चर्च का पुनरुत्थान हुआ है। हालांकि, अपवाद यह है कि रोमन कैथलिक चर्च, सैल्वेशन आर्मी, जेहोवाह’स विटनेसेस और अन्य धार्मिक आंदोलनों द्वारा किये जाने वाले धर्मांतरण को यह अवैध मानता है, जिसका उल्लेख यह अपने धर्मवैधानिक क्षेत्र के रूप में करता है।[उद्धरण चाहिए]

धर्म-परिवर्तन के इसके कानूनों को लेकर ग्रीस का संघर्षों का एक लंबा इतिहास रहा है, जिनमें से अधिकांश जेहोवाह’स विटनेसेस के साथ और कुछ पेंटाकोस्टल्स के साथ भी हुए हैं। यह स्थिति सन 1930 के दशक में तानाशाह आइयोनिस मेटाक्सास (Ioannis Metaxas) द्वारा पारित किये गये एक कानून से उपजी है। घर-घर जाकर अपने धार्मिक विश्वास का प्रचार करने के लिये गिरफ़्तार किये जाने के बाद एक जेवोवाह’स विटनेस मिनोस कोक्किनाकिस ने क्षतिपूर्ति के रूप में ग्रीक राज्य से $14,400 अमरीकी डॉलर का हर्जाना हासिल करने में सफलता पाई. एक अन्य मामले, लैरिसिस बनाम ग्रीस, में, पेंटाकोस्टल चर्च के एक सदस्य ने भी यूरोपियन कोर्ट ऑफ ह्युमन राइट्स में एक मुकदमा जीता।[उद्धरण चाहिए]

इस्लामी कानून का पालन करने वाले कुछ इस्लामी देशों में धर्म-परिवर्तन गैर-कानूनी है और इसके लिये कड़ी सज़ा का प्रावधान है। इस्लामी कानून का पालन करने वाले अनेक इस्लामी देशों, सउदी अरब, येमन, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईजिप्त, इरान, मालदीव में स्वधर्म-त्याग को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और इस्लाम का त्याग करने वालों या अन्य मुस्लिमों को इसके लिये उकसाने वालों के लिये कारावास या मृत्यु-दण्ड का प्रावधान है।[उद्धरण चाहिए] इसके अलावा, भारत के ओडिशा राज्य में प्रेरित धर्मांतरण के परिणामस्वरूप सांप्रदायिक दंगे हुए हैं।[उद्धरण चाहिए]

धर्मांतरण पर आंबेडकर के विचार

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भीमराव आंबेडकर स्वतंत्र्य, समानता और भाईचारे की शिक्षा के बदले अपने ही अनुयायी को धृणा की नज़र से देखना आदि मुद्दो पर विरोध उठाकर समर्थकों के साथ धर्मांतरण कर बौद्ध धर्म अंगिकार किया था। धर्मांतरण धर्मांतरण नहीं बल्कि गुलामी की जंजिरे तोडने जैसा है एसा धर्मांतर क्यो? नामक पुस्तक में उन्होंने लिखा है।[उद्धरण चाहिए] आंबेडकरने धर्म में सभी नागरिको समान अधिकार होना चाहिए इस बात का प्रतिपादन किया था।

धर्मांतरण पर गांधीजी के विचार

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गांधीजी ने धर्मांतरण प्रक्रिया की आलोचना की है और सभी धर्मों को समान मानकर सभी का आदर करने का विचार रखा था। उनके कुछ उद्वरण निम्नलिखित हैं:-

मैं विश्वास नहीं करता कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का धर्मांतरण करे। दूसरे के धर्म को कम करके ऑंकना मेरा प्रयास कभी नहीं होना चाहिए। इसका अर्थ है सभी धर्मों के सच में विश्वास करना और उनका सम्मान करना। इसका अर्थ है, सच्ची विनयशीलता... मेरा मानना है कि मानवतावादी कार्य की आड़ में धर्म-परिवर्तन रुग्ण मानसिकता का परिचायक है। यहीं लोगों द्वारा इसका सबसे अधिक विरोध होता है। आखिर धर्म नितांत व्यक्तिगत मामला है। यह हृदय को छूता है।..। मैं अपना धर्म इस वजह से क्यों बदलूँ कि ईसाई मत का प्रचार करनेवाले उस डॉक्टर का धर्म ईसाई है, जिसने मेरा इलाज किया है? या डॉक्टर मुझसे यह उम्मीद क्यों रखे कि मैं उससे प्रभावित होकर अपना धर्म बदल लूँगा? ('यंग इंडिया', 23 अप्रैल 1931)
"यदि मेरे पास शक्ति है तथा मैं इसका प्रयोग कर सकता हूँ तो मुझे धर्म-परिवर्तन को रोकना चाहिए। हिंदू परिवारों में मिशनरी के आगमन का अर्थ वेशभूषा, तौर-तरीके, भाषा, खान-पान में परिवर्तन के कारण परिवार का विघटन है।" ('हरिजन', 5 नवम्बर 1935)
"आज भारत में और अन्य कहीं भी धर्मांतरण की शैली के साथ सामंजस्य बिठाना मेरे लिए असंभव है। यह ऐसी गलती होगी, जिससे संभवत: शांति की ओर विश्व की प्रगति में बाधा आएगी। कोई ईसाई किसी हिंदू को ईसाई मत में धर्मांतरित क्यों करना चाहता है? यदि हिंदू भला आदमी है या धर्मपरायण है तो वह इससे संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता?" ('हरिजन', 30 जनवरी 1937)

सन्दर्भ

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  1. स्टार्क, रॉडनी और रॉजर फिंके. "एक्ट्स ऑफ़ फेथ: एक्स्प्लेनिंग द ह्युमन साइड ऑफ़ रेलिजियन." यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया प्रेस, 2000. ISBN 978-0-520-22202-1
  2. फैल्केंबर्ग, स्टीव. "धार्मिक समाजीकरण के मनोवैज्ञानिक स्पष्टीकरण." धर्म परिवर्तन. पूर्वी केंटकी विश्वविद्यालय. 31 अगस्त 2009.
  3. हेफनर, रॉबर्ट डब्ल्यू. ईसाई धर्म में परिवर्तन .यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया प्रेस, 1993. ISBN 0-520-07836-5 स्वतंत्र समाचार पत्र: "... फाइंडिंग रेलिजियन - इज़ देर एनिथिंग मिडल-क्लास पेरेंट्स वोंट ट्राई टू गेट देयर चिल्ड्रेन इनटू द 'राइट' स्कूल्स?"
  4. ब्रोमिली, जेफ्री डब्ल्यू. " बपतिस्मा." अंतर्राष्ट्रीय मानक बाइबल विश्वकोश: ई. (पृष्ठ. 419). डब्ल्यूएम. बी. एर्डमैन्स प्रकाशन, 1995. ISBN 0-8028-3781-6 "बपतिस्मा का प्रयोजन."
  5. "gospelway.com". मूल से 3 जनवरी 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 मार्च 2011.
  6. ऑग्सबर्ग कन्फेशन, धारा बारह: पश्चाताप के बारे में (Augsburg Confession, Article XII: Of Repentance)
  7. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; ConversionToChrist नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  8. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; BeSaved नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  9. Smith, P. (1999). A Concise Encyclopedia of the Bahá'í Faith. Oxford, UK: Oneworld Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 1851681841.
  10. Momen, M. (1997). A Short Introduction to the Bahá'í Faith. Oxford, UK: One World Publications. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 1851682090.
  11. (ऋग्वेद 1:164:46) "एकं सत विप्र बहुधा वदंती” - सत्य एक है, साधु उन्हें कई नाम से पुकारते हैं
  12. (महा उपनिषद: अध्याय 6, पद्य 72) "वसुधैव कुटुम्बकं" - पूरी दुनिया एक बड़ा परिवार है
  13. Omar, Rashid (2006). The Right to Religious Conversion: Between Apostasy and Proselytization (PDF). Kroc Institute, University of Notre Dame. पृ॰ 3. मूल (PDF) से 13 अप्रैल 2008 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 25 मार्च 2011. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद)
  14. शेपेंस, टी. (डच) Religieuze bewegingen in Nederland खंड 29, Sekten Ontkerkelijking en religieuze vitaliteit: nieuwe religieuze bewegingen en New Age-centra in Nederland (1994) VU uitgeverij ISBN 90-5383-341-2
  15. स्टार्क, आर एंड डब्ल्यू.एस. बेनब्रिज द फ्यूचर ऑफ़ रेलिजन: सेक्युलराइज़ेशन, रिवाइवल एंड कल्ट फॉर्मेशन (1985) बर्कले/लॉस एंजेलिस/लंदन: कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय प्रेस

आगे पढ़ें

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  • बार्कर, इलीन The Making of a Moonie: Choice or Brainwashing? (1984)
  • बैरेट, डी.वी. द न्यू बिलीवर्स - अ सर्वे ऑफ़ सेक्ट्स, कल्ट्स एंड ऑल्टर्नेटिव रेलिजन्स (2001) यूके, कैसेल एंड कं. ISBN 0-304-35592-5
  • कूपर, रिचर्ड एस. "मध्यकालीन मिस्र में खरज टैक्स के आकलन और संग्रह" अमेरिकी ओरिएंटल सोसाइटी के जर्नल, खंड 96, संख्या 3. (जुलाई - सितंबर, 1976), पीपी 365-382.
  • कर्टिन, फिलिप डी. ऑस्ट्रेलिया, विश्व इतिहास में क्रॉस कल्चरल व्यापार. कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984.
  • होइबर्ग, डेल और इंदु रामचंद्रन. स्टूडेंट्स ब्रिटानिका इंडिया. लोकप्रिय प्रकाशन, 2000.
  • रैम्बो, लेविस आर. अंडरस्टैंडिंग रेलिजियस कन्वर्ज़न. येल यूनिवर्सिटी प्रेस, 1993.
  • रामस्टेड, मार्टिन. आधुनिक इंडोनेशिया में हिंदू धर्म: स्थानीय, राष्ट्रीय और वैश्विक हितों के बीच एक अल्पसंख्यक धर्म. रुट्लेज, 2004.
  • रावत, अजय एस. स्टुडेंटमैन एंड फॉरेस्ट्स: द खट्टा एंड गुज्जर सेटेलमेंट्स ऑफ़ सब-हिमालयन तराई. इंडस प्रकाशन, 1993.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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