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जयप्रकाश नारायण

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लोकनायक जयप्रकाश नारायण

जयप्रकाश नारायण ( 11 अक्टूबर 1902 - 8 अक्टूबर 1979), एक भारतीय राजनीतिज्ञ, सिद्धान्तकार और स्वतंत्रता सेनानी थे। उनकी प्रसिद्धि 1970 के दशक के मध्य में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व करने के कारण है। इस आन्दोलन को 'जेपी आंदोलन' के नाम से जाना जाता है। इस आन्दोलन से इन्दिरा गांधी इतनी घबरा गयीं थी कि उन्होने १९७५ में भारत में आपातकाल की घोषणा कर दी।

उक्तियां

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  • ये (साम्यवाद) इस सवाल का जवाब नहीं देता कि कोई आदमी अच्छा क्यों हो?
  • सच्ची राजनीति वही है जो मानवीय प्रसन्नता को बढ़ावा दे।
  • हिंसक क्रांति हमेशा किसी न किसी तरह की तानाशाही लेकर आई है… क्रांति के बाद, धीरे-धीरे एक नया विशेषाधिकार प्राप्त शासकों एवं शोषकों का वर्ग खड़ा हो जाता है, लोग एक बार फिर उसके अधीन हो जाते हैं।
  • अगर आप सचमुच स्वतंत्रता, स्वाधीनता की परवाह करते हैं, तो बिना राजनीति के कोई लोकतंत्र या उदार संस्था नहीं हो सकती। राजनीति के रोग का सही मारक बेहतर राजनीति ही हो सकती है, राजनीति का अपवर्जन नहीं।
  • मेरी रुचि सत्ता के कब्जे में नहीं, बल्कि लोगों द्वारा सत्ता के नियंत्रण में है।
  • केवल वे ही लोग हिंसक रास्ते को अपनाते हैं जिन्हें लोगों पर भरोसा और आत्मविश्वास नहीं होता, या फिर जनता का भरोसा जीतने में असमर्थ होते हैं।
  • भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रान्ति लाना आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं। क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, सम्पूर्ण क्रान्ति, आवश्यक है।
  • सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है।
  • सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल है – राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है।
  • राष्ट्रीय एकता के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति धार्मिक अन्धविश्वासों से बाहर निकलकर अपने अन्दर एक बौद्धिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करे।
  • लोकतंत्र को शांति के बिना सुरक्षित और मजबूत नहीं बनाया जा सकता। शांति और लोकतंत्र एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के बिना दूसरा बचा नहीं रह सकता।
  • जब सत्ता बंदूक की नली से बाहर आती है और बंदूक आम लोगों के हाथों में नहीं रहती, तब सत्ता सर्वदा अग्रिम पंक्ति वाले क्रांतिकारियों के बीच सबसे क्रूर मुट्ठीभर लोगों द्वारा हड़प ली जाती है।
  • मुझे न तो पहले विश्वास था और न अब है कि राज्य पूर्ण रूप से कभी लुप्त हो जाएगा। परन्तु मुझे यह विश्वास है कि राज्य के कार्यक्षेत्र को जहां तक सम्भव हो घटाने के प्रयास करना सबसे अच्छा उद्देश्य है।
  • राजनीतिक दलीय प्रणाली में जनता की स्थिति उन भेड़ों की तरह होती है जो निश्चित अवधि के पश्चात् अपने लिए ग्वाला चुन लेती है। ऐसी लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली में मैं उस स्वतन्त्रता के दर्शन कर नहीं पाता जिसके लिए मैंने तथा जनता ने संघर्ष किया था।
  • युवा पीढ़ी के उत्साह और आदर्शों को रचनात्मक कार्यों में प्रवृत्त करना कोई बुरी बात नहीं है, परन्तु साधन तथा साध्य के सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि युवा पीढ़ी को क्रान्ति के लिए प्रत्येक प्रकार के साधनों को प्रयुक्त करने को अनुमति दे दी जाए।
  • जब तक प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना का विकास नहीं होगा तब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। भारत में सांस्कृतिक एकता होते हुए भी राजनीतिक एकता का अभाव है। भारत में ब्रिटिश शासन द्वारा सम्पूर्ण भारतीय प्रदेश पर अधिकार करने के बाद ही एक सरकार के अन्तर्गत राष्ट्रीय एकता का उदय हुआ है।
  • स्वतंत्रता के बाद पहले कुछ वर्षों के उत्साह के बाद, आत्म-अपमान का दौर शुरू हुआ, जिसके दौरान शिक्षित भारतीयों, विशेष रूप से पश्चिम में शिक्षित लोगों ने नेतृत्व किया। चाहे आधुनिकीकरण के नाम पर, विज्ञान के नाम पर या विचारधारा के नाम पर, उन्होंने भारतीय चीज़ों को, यदि सभी नहीं तो, अधिकांश को नकार दिया। हम अभी भी इस दौर से बाहर नहीं आये हैं। मैं यह कह रहा हूं कि भारतीय समाज या इतिहास में जो गलत और बुरा है, उसकी अनदेखी करनी चाहिये। लेकिन छाती पीटना और आत्मपीड़न उन मनोवैज्ञानिक प्रेरणाओं के विकास के लिए अनुकूल नहीं है जो राष्ट्र-निर्माण के लिए बहुत आवश्यक हैं, न ही दूसरों की गुलामी भरी नकल। -- 'नागरिक अवज्ञा और भारतीय परम्परा' की भूमिका में

जयप्रकाश नारायण के बारे में महापुरुषों के विचार

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सन 1946 में जयप्रकाश जी जेल से छूटने के बाद रामधारी सिंह 'दिनकर' ने निम्नलिखित ओजपूर्ण पंक्तियाँ लिखीं थी और पटना के गांधी मैदान में उनके स्वागत में उमड़ी लाखों लोगों के सामने पढ़ी थी-

झंझा सोई, तूफान रुका, प्लावन जा रहा कगारों में;
जीवित है सबका तेज किन्तु, अब भी तेरे हुंकारों में।
दो दिन पर्वत का मूल हिला, फिर उतर सिन्धु का ज्वार गया,
पर, सौंप देश के हाथों में वह एक नई तलवार गया।
'जय हो' भारत के नये खड्ग; जय तरुण देश के सेनानी!
जय नई आग! जय नई ज्योति! जय नये लक्ष्य के अभियानी!
स्वागत है, आओ, काल-सर्प के फण पर चढ़ चलने वाले!
स्वागत है, आओ, हवनकुण्ड में कूद स्वयं बलने वाले!
मुट्ठी में लिये भविष्य देश का, वाणी में हुंकार लिये,
मन से उतार कर हाथों में, निज स्वप्नों का संसार लिये।
सेनानी ! करो प्रयाण अभय, भावी इतिहास तुम्हारा है;
ये नखत अमा के बुझते हैं, सारा आकाश तुम्हारा है।
जो कुछ था निर्गुण, निराकार, तुम उस द्युति के आकार हुए,
पी कर जो आग पचा डाली, तुम स्वयं एक अंगार हुए।
साँसों का पाकर वेग देश की, हवा तवी-सी जाती है,
गंगा के पानी में देखो, परछाईं आग लगाती है।
विप्लव ने उगला तुम्हें, महामणि, उगले ज्यों नागिन कोई;
माता ने पाया तुम्हें यथा, मणि पाये बड़भागिन कोई।
लौटे तुम रूपक बन स्वदेश की, आग भरी कुरबानी का,
अब "जयप्रकाश" है नाम देश की, आतुर, हठी जवानी का।
कहते हैं उसको "जयप्रकाश", जो नहीं मरण से डरता है,
ज्वाला को बुझते देख, कुण्ड में, स्वयं कूद जो पड़ता है।
है "जयप्रकाश" वह जो न कभी, सीमित रह सकता घेरे में,
अपनी मशाल जो जला, बाँटता फिरता ज्योति अँधेरे में।
है "जयप्रकाश" वह जो कि पंगु का, चरण, मूक की भाषा है,
है "जयप्रकाश" वह टिकी हुई, जिस पर स्वदेश की आशा है।
हाँ, "जयप्रकाश" है नाम समय की, करवट का, अँगड़ाई का;
भूचाल, बवण्डर के ख्वाबों से, भरी हुई तरुणाई का।
है "जयप्रकाश" वह नाम जिसे, इतिहास समादर देता है,
बढ़ कर जिसके पद-चिह्नों को, उर पर अंकित कर लेता है।
ज्ञानी करते जिसको प्रणाम, बलिदानी प्राण चढ़ाते हैं,
वाणी की अंग बढ़ाने को, गायक जिसका गुण गाते हैं।
आते ही जिसका ध्यान, दीप्त हो प्रतिभा पंख लगाती है,
कल्पना ज्वार से उद्वेलित, मानस-तट पर थर्राती है।
वह सुनो, भविष्य पुकार रहा, "वह दलित देश का त्राता है,
स्वप्नों का दृष्टा "जयप्रकाश", भारत का भाग्य-विधाता है।"

बाहरी कडियाँ

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