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परिवेश
साधना की ससद्धध में वाताविण का महत्व

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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वाताविण की महता

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घेिण्ड संहहता – प्राणायाम प्रकिण
• श्लोक २: प्रथम स्थान और काल का चुनाव तथा
ममताहार और नाड़ी शुद्धि करें | इसके पश्चात
प्राणायाम का अभ्यास करना चाहहए
• श्लोक ३-७: दूर देश में, अरण्य(वन) में और
राजिानी में बैठकर योगाभ्यास नह ीं करना
चाहहए, अन्यथा मसद्धि में हानन हो सकती है,
क्योंकक दूर देश में ककसी का ववश्वास नह ीं होता,
अरण्य(वन) रक्षक रहहत होता है, और राजिानी में
अधिक जनसमूह रहने के कारण प्रकाश एवीं
कोलाहल रहता है | इसीमलए ये तीनों स्थान इसके
मलए वर्जित है | सुन्दर िमिशील देश में, जहााँ
खाद्य पदाथि सुलभ हों और देश उपद्रव रहहत भी
हो, वहााँ कु ट बनाकर उसके चारों और प्राचीर
(चहारद वार ) बना लें | वहााँ कु आाँ या जलाशय हो
| उस कु ट कक भूमम न बहुत ऊाँ ची हो, न बहुत
नीची, गोबर से मलपी हुई कीट आहद से रहहत और
एकाींत स्थान में हो | वहााँ प्राणायाम का अभ्यास
करना चाहहए |

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शास्त्रों में स्त्थान सम्बन्धी ननर्देश
• ‘भागवत पुिाण’ में योगी का स्त्थान कै सा होना चाहहए इसका वणणन
किते हुए कहा गया है कक ‘योगी पुण्यतीथण के जल में स्त्नान कि,
शुद्ध एकान्त स्त्थान में बबछाए हुए आसन पि बैठ कि आसन लगा
कि प्राणायाम किे ।’
• भगवद् गीता में स्थान सम्बन्िी ननदेश: योगी को चाहहए कक वह
एकान्त में अके ले िह कि ....पववर स्त्थान पि जो न अधधक ऊँ चा हो
न अधधक नीचा हो, पहले कु शा, किि मृग-चमण औि अंत में वस्त्र का
आसन बबछाकि, आसन पि बैठ कि, मन को एकाग्र किके , धचत्त औि
इन्द्न्ियों की प्रवृनतयों को वश में कि के आत्म शुद्धध के सलए ध्यान
का अभ्यास किना चाहहए | -अध्याय ६/१०-१२

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शांनतकुं ज का परिवेश
• यौधगक पररवेश के रूप में शाींनतकुीं ज:
• िाजधानी (या नगि के कोलाहल से र्दूि )
• सुिक्षित (अिण्य आहर्द की तिह सुििा सम्बन्धी समस्त्याओं का न
होना)
• सुंर्दि धमणशील र्देश के रूप में उपयुक्त
• खाद्य पर्दाथों की व्यवस्त्था (अस्त्वार्द भोजन माताजी के चौके के
प्रसार्द की व्यवस्त्था)
• उपिव िहहत िेर के रूप में उपयुक्त
• चहािर्दीवािी एवं सुििा गार्डणस की व्यवस्त्था
• कु आँ या जलाशय न होते हुए भी पानी की कमी नहीं
• गोबि से सलवप हुई कु टी न होते हुए भी पतंजसल भवन आहर्द में
एकान्त साधना के सलए रूम की व्यवस्त्था
• कैं पस में भीड़ भाड़ वाले समय को छोड़ कि अनेक एकान्त स्त्थानों
की उपलब्धता

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र्देव संस्त्कृ नत ववश्वववद्यालय का परिवेश
• यौधगक पररवेश के रूप में DSVV:
• िाजधानी (या नगि के कोलाहल से र्दूि )
• सुिक्षित (अिण्य आहर्द की तिह सुििा सम्बन्धी समस्त्याओं का न होना)
• सुंर्दि धमणशील र्देश के रूप में उपयुक्त
• खाद्य पर्दाथों की व्यवस्त्था (अस्त्वार्द भोजन एवं स्त्वास्त््यप्रर्द पेय पर्दाथो
की व्यवस्त्था)
• उपिव िहहत िेर के रूप में उपयुक्त
• चहािर्दीवािी एवं सुििा गार्डणस की व्यवस्त्था
• कु आँ या जलाशय न होते हुए भी पानी की कमी नहीं
• गोबि से सलवप हुई कु टी न होते हुए भी महाकाल परिसि में झिोखे की
व्यवस्त्था, आम्रकु ञ्ज में कु टी बनाने की जगह
• कैं पस में अनेक एकान्त स्त्थानों की उपलब्धता

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  • 11. घेिण्ड संहहता – प्राणायाम प्रकिण • श्लोक २: प्रथम स्थान और काल का चुनाव तथा ममताहार और नाड़ी शुद्धि करें | इसके पश्चात प्राणायाम का अभ्यास करना चाहहए • श्लोक ३-७: दूर देश में, अरण्य(वन) में और राजिानी में बैठकर योगाभ्यास नह ीं करना चाहहए, अन्यथा मसद्धि में हानन हो सकती है, क्योंकक दूर देश में ककसी का ववश्वास नह ीं होता, अरण्य(वन) रक्षक रहहत होता है, और राजिानी में अधिक जनसमूह रहने के कारण प्रकाश एवीं कोलाहल रहता है | इसीमलए ये तीनों स्थान इसके मलए वर्जित है | सुन्दर िमिशील देश में, जहााँ खाद्य पदाथि सुलभ हों और देश उपद्रव रहहत भी हो, वहााँ कु ट बनाकर उसके चारों और प्राचीर (चहारद वार ) बना लें | वहााँ कु आाँ या जलाशय हो | उस कु ट कक भूमम न बहुत ऊाँ ची हो, न बहुत नीची, गोबर से मलपी हुई कीट आहद से रहहत और एकाींत स्थान में हो | वहााँ प्राणायाम का अभ्यास करना चाहहए |
  • 12. शास्त्रों में स्त्थान सम्बन्धी ननर्देश • ‘भागवत पुिाण’ में योगी का स्त्थान कै सा होना चाहहए इसका वणणन किते हुए कहा गया है कक ‘योगी पुण्यतीथण के जल में स्त्नान कि, शुद्ध एकान्त स्त्थान में बबछाए हुए आसन पि बैठ कि आसन लगा कि प्राणायाम किे ।’ • भगवद् गीता में स्थान सम्बन्िी ननदेश: योगी को चाहहए कक वह एकान्त में अके ले िह कि ....पववर स्त्थान पि जो न अधधक ऊँ चा हो न अधधक नीचा हो, पहले कु शा, किि मृग-चमण औि अंत में वस्त्र का आसन बबछाकि, आसन पि बैठ कि, मन को एकाग्र किके , धचत्त औि इन्द्न्ियों की प्रवृनतयों को वश में कि के आत्म शुद्धध के सलए ध्यान का अभ्यास किना चाहहए | -अध्याय ६/१०-१२
  • 13. शांनतकुं ज का परिवेश • यौधगक पररवेश के रूप में शाींनतकुीं ज: • िाजधानी (या नगि के कोलाहल से र्दूि ) • सुिक्षित (अिण्य आहर्द की तिह सुििा सम्बन्धी समस्त्याओं का न होना) • सुंर्दि धमणशील र्देश के रूप में उपयुक्त • खाद्य पर्दाथों की व्यवस्त्था (अस्त्वार्द भोजन माताजी के चौके के प्रसार्द की व्यवस्त्था) • उपिव िहहत िेर के रूप में उपयुक्त • चहािर्दीवािी एवं सुििा गार्डणस की व्यवस्त्था • कु आँ या जलाशय न होते हुए भी पानी की कमी नहीं • गोबि से सलवप हुई कु टी न होते हुए भी पतंजसल भवन आहर्द में एकान्त साधना के सलए रूम की व्यवस्त्था • कैं पस में भीड़ भाड़ वाले समय को छोड़ कि अनेक एकान्त स्त्थानों की उपलब्धता
  • 14. र्देव संस्त्कृ नत ववश्वववद्यालय का परिवेश • यौधगक पररवेश के रूप में DSVV: • िाजधानी (या नगि के कोलाहल से र्दूि ) • सुिक्षित (अिण्य आहर्द की तिह सुििा सम्बन्धी समस्त्याओं का न होना) • सुंर्दि धमणशील र्देश के रूप में उपयुक्त • खाद्य पर्दाथों की व्यवस्त्था (अस्त्वार्द भोजन एवं स्त्वास्त््यप्रर्द पेय पर्दाथो की व्यवस्त्था) • उपिव िहहत िेर के रूप में उपयुक्त • चहािर्दीवािी एवं सुििा गार्डणस की व्यवस्त्था • कु आँ या जलाशय न होते हुए भी पानी की कमी नहीं • गोबि से सलवप हुई कु टी न होते हुए भी महाकाल परिसि में झिोखे की व्यवस्त्था, आम्रकु ञ्ज में कु टी बनाने की जगह • कैं पस में अनेक एकान्त स्त्थानों की उपलब्धता