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चित्त
श्रीमद् आद्य शंकराचाययजी ने वििेकचुडामणी ग्रंथ में इसकी सुंदर व्याख्या की है ।
निगद्यतेन्तःकरणं मिोध ः
अहंकृ नतश्चित्तममनत स्ववृत्तत्तम ः ।
मिस्तु संकल्पत्तवकल्पिादिम ः
बुद््धः पिार्ााध्यवसायधमातः ॥ ९३ ॥
अत्राम मािािहममत्यहंकृ नतः ।
स्वार्ाािुसंधािगुणेि ्ित्तम्॥ ९४ ॥
यहााँ पर अंतःकरण के हर घटक का अलग अलग कायय बताया गया है । हमारा मन अनेक संकल्प तथा विकल्प करता
है; बुद्धि इन संकल्प-विकल्पों पर ननणयय लेती है तथा उन्हें ददशा प्रदान करती है; परंतु, मन और बुद्धि की इन
क्रियाओं को प्रेररत करनेिाला भी एक तत्त्ि है जजसे “धचत्त” कहते हैं । धचत्त एक storehouse की भााँनत है जो हमारे
इजन्ियजन्य ज्ञान तथा अनुभिों को ग्रहण कर उनका संचय करता है । इनमें हमारे पूियजन्म के संस्कार भी
सजममललत होते हैं । इस तरह धचत्त में अनेक िृवत्तयााँ ननमायण होती हैं जो हमारे संकल्प, विकल्प तथा ननणययों को
प्रभावित करती हैं । इसके अलािा इन सभी के पीछे एक प्रेरक बल बताया गया है “अहंकार”, जो इन सभी क्रियाओं को
आिार देता है । इस आिार यानन "मैं" के बबना अंतःकरण की विविि क्रियाएाँ एक दूसरे से जुड ही नहीं सकती । इससे
यह बात ननजचचत होती है क्रक व्यजतत का चाररत्र्य उसके अंतःकरण में रही िृवत्तओं तथा संस्कारों का प्रनतबबंब है । हम
जजस प्रकार के विचारों तथा अनुभिों को ज़ादा दोहराते हैं अथिा जजस प्रकार का धचंतन ज़ादा करते हैं उस प्रकार के
हमारे संस्कार बनते हैं, ि उस स्तर का हमारा मानलसक विकास होता है ।
 अन्तःकरण के चार भाग
 मन जो मनन का काम करता है (जैसे कं प्यूटर में RAM)
 बुद्धि जो ननणयय लेने का काम करती है (कं प्यूटर Processor)
 धचत्त जो स्मृनत का काम करती है (कं प्यूटर harddisk)
 अहंकार जो में की भािना उत्पन्न करता है (अहंकार कं प्यूटर जैसे जड पदाथो में
नहीं पाया जाता है पर मनुष्य में पाया जाता है जैसे मैंने कं प्यूटर बनाया)
 मन और धचत्त का समबन्ि: जैसे अगर RAM में िायरस है तो harddisk में भी आ सकता है
जब तक RAM में से सारे िायरस खत्म नहीं हो जाते harddisk में यह िायरस कॉपी होते जा
सकते है | इसी तरह जब तक harddisk के सारे िायरस खत्म नहीं हो जाते कोई भी प्रोग्राम
RAM में ठीक से रन नहीं हो पायेगा| इसी तरह से मन काम, िोि आदद िायरस के कारण
ठीक से मनन नहीं कर पाता है और इसका असर धचत्त पर भी नए संस्कारो के रूप में पडेगा |
तथा धचत्त के संस्कारो के कारण मन एकाग्र होकर अपना काम नहीं कर पायेगा |
 धचत्त को जो समझ लेते है उनके ललए धचत्त ईचिर का ही रूप है जैसे समुि में
उठती तरंग समुि से लभन्न नहीं है | परन्तु धचत्त को यथा रूप न समझ ने
िालो के ललए धचत्त ईचिर का रूप नहीं है |
 धचत्त और जड के बीच में मन नाम का जीि है |
 परमात्मा में समादहत िासना रदहत धचत्त शुद्ि हो जाता है | धचत्त के िासना
शून्य एिं शुद्ि होने के बाद मन कल्पनाहीन होकर आत्मा स्िरुपता को
प्राप्त करता है |
 यह संपूणय चराचर जगत धचत्त के अिीन है | बंिन और मोक्ष भी धचत्त के
अिीन है |
 मनोहर धचत्तिृनत का उदय हो अथायत ईचिर आदद में धचत्त की एकाग्रता हो
तो घोर रौरि नरक रूपी दुःख भी सुख में पररिनतयत हो जाता है | जैसे प्रातः
मुझे अिचय राज्य प्राप्त होनेिाला है; इस बात का जजसे प्रमाणों से ननचचय
है और जजसके हाथ-पैर हथकडी और बेडी से भली भांनत बंिे है; उसका बंिन
दुःख के बदले सुख में पररिनतयत हो जाता है |
 धचत्त भी शम-दम आदद उपायों से जजिर चाहो उिर िैसे ही लगाया जा
सकता है जैसे बालक लाड-प्यार और भय से बबना क्रकसी प्रयत्न के इिर-
उिर जहााँ चाहो िहााँ लगाया जा सकता है इसललए धचत्त पर विजय प्राप्त
करने में कौन सी कदठनाई है ?
 संसार की भािना से डूबा हुआ मन यदद मन से ही जबरदस्ती नहीं उबारा
जाता है तो उसको उबारने का उससे अन्य उपाय नहीं है |
धचत्त की भूलमयााँ
 क्षक्षप्त (भोगो में तीव्रता से सक्रिय/हाइपर एजतटि)
 मूढ़ (ज्ञान शुन्य/डडप्रेस्ड/उदास)
 विक्षक्षप्त (एकाग्रता का बार बार टूट जाना)
 एकाग्र (एक विषय में लमबे समय तक धचत को जस्थर कर पाना)
 ननरुद्ि (समाधि की अिस्था/ननवियषय मन/धचतिृनतयों का ननरोि)
 प्रकाशशील (सतोगुणी)
 गनतशील (रजोगुणी)
 जस्थनतशील (तमोगुणी)
 अजतलष्ट (सुख, ज्ञान, िैराग्य, िमय और मोक्ष की और ले जानेिाली)
 जतलष्ट (दुःख, अज्ञान, अिैराग्य, अिमय और बंिन की और ले जानेिाली)
 उदाहरण:
 प्रत्यक्ष प्रमाण अजतलष्टिृनत: मनपसंद भोजन खाकर प्रत्यक्ष सुख की अनुभूनत का
होना
 प्रत्यक्ष प्रमाण जतलष्टिृनत: मन को बबलकु ल ही पसंद ना हो ऐसी चीज खा कर
दुःख की अनुभूनत का होना
 अनुमान प्रमाण अजतलष्टिृनत: सामने िाले व्यजतत से कु छ पुरस्कार लमलने िाला
है ऐसी कल्पना करके जो सुख की अनुभूनत का होना
 अनुमान प्रमाण जतलष्टिृनत: हमें काटने के ललए कु त्ता तीव्र गनत से दौडता हुआ
हमारी और आ रहा है ऐसी कल्पना करके जो दुःख की अनुभूनत का होना
 उदाहरण:
 शब्द प्रमाण अजतलष्टिृनत: “ईचिर का प्रत्यक्ष करके व्यजतत को मोक्ष हो जाता है”
िेद में ऐसा पढ़कर सुख की अनुभूनत का होना
 शब्द प्रमाण जतलष्टिृनत: “जो पाप करते है उन्हें पशु-पक्षी की योननयों में जा कर
अपने पापो के फल भुगतने पडते है” िेद में ऐसा पढ़कर दुःख की अनुभूनत का होना
 विपययय अजतलष्टिृनत: “अाँिेरे कु एं में धगरे व्यजतत के हाथ में सांप आ जाने पर उसे
रस्सी हाथ में आ गयी ऐसा मानकर सुख की अनुभूनत होना
 विपययय जतलष्टिृनत: हल्के प्रकाश में रस्सी को सााँप समझकर दुःख की अनुभूनत
का होना
 विकल्प अजतलष्टिृनत: “में भविष्य में प्रिानमंत्री बन जाऊाँ गा” ऐसी कल्पना करके
सुख का अनुभि होना
 विकल्प जतलष्टिृनत: “दुननया का अन्त होने िाला है” ऐसी कल्पना करके दुःख का
अनुभि होना
 उदाहरण:
 अजतलष्ट ननिा िृनत: अच्छी सुखदायक ननिा का प्राप्त होना
 जतलष्ट ननिा िृनत: गमी, मच्छर आदद के कारण दुखदायक ननिा का प्राप्त होना
 अजतलष्ट स्मृनत िृनत : कु छ साल पहले की घटना जजसमें व्यजतत का हजारों लोगों
के मध्य में सममाननत क्रकया गया था उसे याद करके सुख का अनुभि होना
 जतलष्ट स्मृनत िृनत : कु छ साल पहले की घटना जजसमें व्यजतत को कु छ लोगों ने
पीटा था और अपमाननत क्रकया था उसे याद करके सुख का अनुभि होना
 योगजचचत्तिृवत्तननरोिः॥२॥ धचत्त िृनतयों का ननरोि दह योग है| -समाधिपाद २.
 अप्यजब्िपानान्महत: सुमेरून्मूलनादवप |
अवप िहन्यशनात्सािो विषमजचचत्तननग्रह: //
अपने स्ियं के धचत्त का ननग्रह करना यह संपूणय सागर के जल को पीना, मेरू
पियत को उखाडना या क्रफर अजग्न को खाना ऐसे असंभि बातों से भी कदठन
है |
 एक क्रिल्म देखकर लौटा हूं।... दशयकों को देखता था, लगता था क्रक िे
अपने को भूल गये हैं। एक कोरा परदा सामने है और पाचिय से धचत्रों का
प्रक्षेपण हो रहा है। जो देख रहा है, उनकी दृजष्ट सामने है और पीछे का
क्रकसी को कोई ध्यान नहीं है। इस तरह लीला को जन्म लमलता है। मनुष्य
के भीतर और मनुष्य के बाहर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के
मन की पाचिय-भूलम में है। मनोविज्ञान इस पाचिय को अचेतन कहता है। इस
अचेतन में संग्रहीत िृवत्तयां, िासनाएं चेतना दशयक है, साक्षी है-िह इस
िृवत्त-धचत्रों के प्रिाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है।,
संस्कार धचत्त के परदे पर प्रक्षेवपत होते रहते हैं। धचत्त जब िृवत्त-शून्य होता
है, परदे पर जब धचत्रों का प्रिाह रुकता है, तब ही दशयक को अपनी याद
आती है और िह अपने गृह को लौटता है। धचत्त-िृवत्तयों के इस ननरोि को
ही पतंजलल ने योग कहा है। यह सािते ही सब सि जाता है।
 शुक:
मागे मागे जायते सािुसङ्गः
सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृ ष्णकीनतयः ।
कीतौ कीतौ नस्तदाकारिृवत्तः
िृत्तौ िृत्तौ सजच्चदानन्द भासः ॥
हे रंभा ! हर मागय में सािुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगिान
कृ ष्णचंि के गुणगान सुनने लमलते हैं । हर गुणगान सुनते ितत हमारी
धचत्तिृवत्त भगिान के ध्यान में लीन होती है, और हर ितत सजच्चदानंद का
आभास होता है ।
 क्रकमत्र बहुनोततेन शास्त्रकोदट शतेन च ।
दुलयभा धचत्त विश्राजन्तः विना गुरुकृ पां परम ्॥
बहुत कहने से तया ? करोडों शास्त्रों से भी तया ? धचत्त की परम शांनत, गुरु के बबना लमलना दुलयभ है ।
 योगीन्िः श्रुनतपारगः समरसामभोिौ ननमग्नः सदा
शाजन्त क्षाजन्त ननतान्त दाजन्त ननपुणो िमैक ननष्ठारतः ।
लशष्याणां शुभधचत्त शुद्धिजनकः संसगय मात्रेण यः
सोऽन्यांस्तारयनत स्ियं च तरनत स्िाथं विना सद्गुरुः ॥
योधगयों में श्रेष्ठ, श्रुनतयों को समजा हुआ, (संसार/सृजष्ट) सागर में समरस हुआ, शांनत-क्षमा-दमन ऐसे गुणों िाला, िमय में एकननष्ठ, अपने
संसगय से लशष्यों के धचत्त को शुद्ि करने िाले, ऐसे सद्गुरु, बबना स्िाथय अन्य को तारते हैं, और स्ियं भी तर जाते हैं ।
 बहिो गुरिो लोके लशष्य वित्तपहारकाः ।
तिधचतु तत्र दृचयन्ते लशष्यधचत्तापहारकाः ॥
जगत में अनेक गुरु लशष्य का वित्त हरण करनेिाले होते हैं; परंतु, लशष्य का धचत्त हरण करनेिाले गुरु शायद दह ददखाई देते हैं ।
 मैत्री करूणा मुददतोपेक्षाणां| सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां|
भािनातजचचत्तप्रासादनम ्| पातञ्जल योग 1|33
 आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य
तथा अच्छे कमय समाज सेिा आदद देखकर आनंद का भाि, तथा
क्रकसी ने पाप कमय क्रकया तो मन में उपेक्षा का भाि 'क्रकया होगा
छोडो' आदद प्रानतक्रियाएाँ उत्पन्न होनी चादहए|
 चंिमा, दहमालय पियत, के ले के िृक्ष और चंदन शीतल माने गए हैं, पर इनमें
से कु छ भी इतना शीतल नहीं जजतना मनुष्य का तृष्णा रदहत धचत्त। —
िलशष्ठ

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चित्त

  • 2. श्रीमद् आद्य शंकराचाययजी ने वििेकचुडामणी ग्रंथ में इसकी सुंदर व्याख्या की है । निगद्यतेन्तःकरणं मिोध ः अहंकृ नतश्चित्तममनत स्ववृत्तत्तम ः । मिस्तु संकल्पत्तवकल्पिादिम ः बुद््धः पिार्ााध्यवसायधमातः ॥ ९३ ॥ अत्राम मािािहममत्यहंकृ नतः । स्वार्ाािुसंधािगुणेि ्ित्तम्॥ ९४ ॥ यहााँ पर अंतःकरण के हर घटक का अलग अलग कायय बताया गया है । हमारा मन अनेक संकल्प तथा विकल्प करता है; बुद्धि इन संकल्प-विकल्पों पर ननणयय लेती है तथा उन्हें ददशा प्रदान करती है; परंतु, मन और बुद्धि की इन क्रियाओं को प्रेररत करनेिाला भी एक तत्त्ि है जजसे “धचत्त” कहते हैं । धचत्त एक storehouse की भााँनत है जो हमारे इजन्ियजन्य ज्ञान तथा अनुभिों को ग्रहण कर उनका संचय करता है । इनमें हमारे पूियजन्म के संस्कार भी सजममललत होते हैं । इस तरह धचत्त में अनेक िृवत्तयााँ ननमायण होती हैं जो हमारे संकल्प, विकल्प तथा ननणययों को प्रभावित करती हैं । इसके अलािा इन सभी के पीछे एक प्रेरक बल बताया गया है “अहंकार”, जो इन सभी क्रियाओं को आिार देता है । इस आिार यानन "मैं" के बबना अंतःकरण की विविि क्रियाएाँ एक दूसरे से जुड ही नहीं सकती । इससे यह बात ननजचचत होती है क्रक व्यजतत का चाररत्र्य उसके अंतःकरण में रही िृवत्तओं तथा संस्कारों का प्रनतबबंब है । हम जजस प्रकार के विचारों तथा अनुभिों को ज़ादा दोहराते हैं अथिा जजस प्रकार का धचंतन ज़ादा करते हैं उस प्रकार के हमारे संस्कार बनते हैं, ि उस स्तर का हमारा मानलसक विकास होता है ।
  • 3.  अन्तःकरण के चार भाग  मन जो मनन का काम करता है (जैसे कं प्यूटर में RAM)  बुद्धि जो ननणयय लेने का काम करती है (कं प्यूटर Processor)  धचत्त जो स्मृनत का काम करती है (कं प्यूटर harddisk)  अहंकार जो में की भािना उत्पन्न करता है (अहंकार कं प्यूटर जैसे जड पदाथो में नहीं पाया जाता है पर मनुष्य में पाया जाता है जैसे मैंने कं प्यूटर बनाया)  मन और धचत्त का समबन्ि: जैसे अगर RAM में िायरस है तो harddisk में भी आ सकता है जब तक RAM में से सारे िायरस खत्म नहीं हो जाते harddisk में यह िायरस कॉपी होते जा सकते है | इसी तरह जब तक harddisk के सारे िायरस खत्म नहीं हो जाते कोई भी प्रोग्राम RAM में ठीक से रन नहीं हो पायेगा| इसी तरह से मन काम, िोि आदद िायरस के कारण ठीक से मनन नहीं कर पाता है और इसका असर धचत्त पर भी नए संस्कारो के रूप में पडेगा | तथा धचत्त के संस्कारो के कारण मन एकाग्र होकर अपना काम नहीं कर पायेगा |
  • 4.  धचत्त को जो समझ लेते है उनके ललए धचत्त ईचिर का ही रूप है जैसे समुि में उठती तरंग समुि से लभन्न नहीं है | परन्तु धचत्त को यथा रूप न समझ ने िालो के ललए धचत्त ईचिर का रूप नहीं है |  धचत्त और जड के बीच में मन नाम का जीि है |  परमात्मा में समादहत िासना रदहत धचत्त शुद्ि हो जाता है | धचत्त के िासना शून्य एिं शुद्ि होने के बाद मन कल्पनाहीन होकर आत्मा स्िरुपता को प्राप्त करता है |  यह संपूणय चराचर जगत धचत्त के अिीन है | बंिन और मोक्ष भी धचत्त के अिीन है |
  • 5.  मनोहर धचत्तिृनत का उदय हो अथायत ईचिर आदद में धचत्त की एकाग्रता हो तो घोर रौरि नरक रूपी दुःख भी सुख में पररिनतयत हो जाता है | जैसे प्रातः मुझे अिचय राज्य प्राप्त होनेिाला है; इस बात का जजसे प्रमाणों से ननचचय है और जजसके हाथ-पैर हथकडी और बेडी से भली भांनत बंिे है; उसका बंिन दुःख के बदले सुख में पररिनतयत हो जाता है |  धचत्त भी शम-दम आदद उपायों से जजिर चाहो उिर िैसे ही लगाया जा सकता है जैसे बालक लाड-प्यार और भय से बबना क्रकसी प्रयत्न के इिर- उिर जहााँ चाहो िहााँ लगाया जा सकता है इसललए धचत्त पर विजय प्राप्त करने में कौन सी कदठनाई है ?  संसार की भािना से डूबा हुआ मन यदद मन से ही जबरदस्ती नहीं उबारा जाता है तो उसको उबारने का उससे अन्य उपाय नहीं है |
  • 6. धचत्त की भूलमयााँ  क्षक्षप्त (भोगो में तीव्रता से सक्रिय/हाइपर एजतटि)  मूढ़ (ज्ञान शुन्य/डडप्रेस्ड/उदास)  विक्षक्षप्त (एकाग्रता का बार बार टूट जाना)  एकाग्र (एक विषय में लमबे समय तक धचत को जस्थर कर पाना)  ननरुद्ि (समाधि की अिस्था/ननवियषय मन/धचतिृनतयों का ननरोि)
  • 7.  प्रकाशशील (सतोगुणी)  गनतशील (रजोगुणी)  जस्थनतशील (तमोगुणी)
  • 8.  अजतलष्ट (सुख, ज्ञान, िैराग्य, िमय और मोक्ष की और ले जानेिाली)  जतलष्ट (दुःख, अज्ञान, अिैराग्य, अिमय और बंिन की और ले जानेिाली)  उदाहरण:  प्रत्यक्ष प्रमाण अजतलष्टिृनत: मनपसंद भोजन खाकर प्रत्यक्ष सुख की अनुभूनत का होना  प्रत्यक्ष प्रमाण जतलष्टिृनत: मन को बबलकु ल ही पसंद ना हो ऐसी चीज खा कर दुःख की अनुभूनत का होना  अनुमान प्रमाण अजतलष्टिृनत: सामने िाले व्यजतत से कु छ पुरस्कार लमलने िाला है ऐसी कल्पना करके जो सुख की अनुभूनत का होना  अनुमान प्रमाण जतलष्टिृनत: हमें काटने के ललए कु त्ता तीव्र गनत से दौडता हुआ हमारी और आ रहा है ऐसी कल्पना करके जो दुःख की अनुभूनत का होना
  • 9.  उदाहरण:  शब्द प्रमाण अजतलष्टिृनत: “ईचिर का प्रत्यक्ष करके व्यजतत को मोक्ष हो जाता है” िेद में ऐसा पढ़कर सुख की अनुभूनत का होना  शब्द प्रमाण जतलष्टिृनत: “जो पाप करते है उन्हें पशु-पक्षी की योननयों में जा कर अपने पापो के फल भुगतने पडते है” िेद में ऐसा पढ़कर दुःख की अनुभूनत का होना  विपययय अजतलष्टिृनत: “अाँिेरे कु एं में धगरे व्यजतत के हाथ में सांप आ जाने पर उसे रस्सी हाथ में आ गयी ऐसा मानकर सुख की अनुभूनत होना  विपययय जतलष्टिृनत: हल्के प्रकाश में रस्सी को सााँप समझकर दुःख की अनुभूनत का होना  विकल्प अजतलष्टिृनत: “में भविष्य में प्रिानमंत्री बन जाऊाँ गा” ऐसी कल्पना करके सुख का अनुभि होना  विकल्प जतलष्टिृनत: “दुननया का अन्त होने िाला है” ऐसी कल्पना करके दुःख का अनुभि होना
  • 10.  उदाहरण:  अजतलष्ट ननिा िृनत: अच्छी सुखदायक ननिा का प्राप्त होना  जतलष्ट ननिा िृनत: गमी, मच्छर आदद के कारण दुखदायक ननिा का प्राप्त होना  अजतलष्ट स्मृनत िृनत : कु छ साल पहले की घटना जजसमें व्यजतत का हजारों लोगों के मध्य में सममाननत क्रकया गया था उसे याद करके सुख का अनुभि होना  जतलष्ट स्मृनत िृनत : कु छ साल पहले की घटना जजसमें व्यजतत को कु छ लोगों ने पीटा था और अपमाननत क्रकया था उसे याद करके सुख का अनुभि होना
  • 11.  योगजचचत्तिृवत्तननरोिः॥२॥ धचत्त िृनतयों का ननरोि दह योग है| -समाधिपाद २.  अप्यजब्िपानान्महत: सुमेरून्मूलनादवप | अवप िहन्यशनात्सािो विषमजचचत्तननग्रह: // अपने स्ियं के धचत्त का ननग्रह करना यह संपूणय सागर के जल को पीना, मेरू पियत को उखाडना या क्रफर अजग्न को खाना ऐसे असंभि बातों से भी कदठन है |
  • 12.  एक क्रिल्म देखकर लौटा हूं।... दशयकों को देखता था, लगता था क्रक िे अपने को भूल गये हैं। एक कोरा परदा सामने है और पाचिय से धचत्रों का प्रक्षेपण हो रहा है। जो देख रहा है, उनकी दृजष्ट सामने है और पीछे का क्रकसी को कोई ध्यान नहीं है। इस तरह लीला को जन्म लमलता है। मनुष्य के भीतर और मनुष्य के बाहर भी यही होता है। एक प्रक्षेप-यंत्र मनुष्य के मन की पाचिय-भूलम में है। मनोविज्ञान इस पाचिय को अचेतन कहता है। इस अचेतन में संग्रहीत िृवत्तयां, िासनाएं चेतना दशयक है, साक्षी है-िह इस िृवत्त-धचत्रों के प्रिाह में अपने को भूल जाती है। यह विस्मरण अज्ञान है।, संस्कार धचत्त के परदे पर प्रक्षेवपत होते रहते हैं। धचत्त जब िृवत्त-शून्य होता है, परदे पर जब धचत्रों का प्रिाह रुकता है, तब ही दशयक को अपनी याद आती है और िह अपने गृह को लौटता है। धचत्त-िृवत्तयों के इस ननरोि को ही पतंजलल ने योग कहा है। यह सािते ही सब सि जाता है।
  • 13.  शुक: मागे मागे जायते सािुसङ्गः सङ्गे सङ्गे श्रूयते कृ ष्णकीनतयः । कीतौ कीतौ नस्तदाकारिृवत्तः िृत्तौ िृत्तौ सजच्चदानन्द भासः ॥ हे रंभा ! हर मागय में सािुजनों का संग होता है, उन हर एक सत्संग में भगिान कृ ष्णचंि के गुणगान सुनने लमलते हैं । हर गुणगान सुनते ितत हमारी धचत्तिृवत्त भगिान के ध्यान में लीन होती है, और हर ितत सजच्चदानंद का आभास होता है ।
  • 14.  क्रकमत्र बहुनोततेन शास्त्रकोदट शतेन च । दुलयभा धचत्त विश्राजन्तः विना गुरुकृ पां परम ्॥ बहुत कहने से तया ? करोडों शास्त्रों से भी तया ? धचत्त की परम शांनत, गुरु के बबना लमलना दुलयभ है ।  योगीन्िः श्रुनतपारगः समरसामभोिौ ननमग्नः सदा शाजन्त क्षाजन्त ननतान्त दाजन्त ननपुणो िमैक ननष्ठारतः । लशष्याणां शुभधचत्त शुद्धिजनकः संसगय मात्रेण यः सोऽन्यांस्तारयनत स्ियं च तरनत स्िाथं विना सद्गुरुः ॥ योधगयों में श्रेष्ठ, श्रुनतयों को समजा हुआ, (संसार/सृजष्ट) सागर में समरस हुआ, शांनत-क्षमा-दमन ऐसे गुणों िाला, िमय में एकननष्ठ, अपने संसगय से लशष्यों के धचत्त को शुद्ि करने िाले, ऐसे सद्गुरु, बबना स्िाथय अन्य को तारते हैं, और स्ियं भी तर जाते हैं ।  बहिो गुरिो लोके लशष्य वित्तपहारकाः । तिधचतु तत्र दृचयन्ते लशष्यधचत्तापहारकाः ॥ जगत में अनेक गुरु लशष्य का वित्त हरण करनेिाले होते हैं; परंतु, लशष्य का धचत्त हरण करनेिाले गुरु शायद दह ददखाई देते हैं ।
  • 15.  मैत्री करूणा मुददतोपेक्षाणां| सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां| भािनातजचचत्तप्रासादनम ्| पातञ्जल योग 1|33  आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कमय समाज सेिा आदद देखकर आनंद का भाि, तथा क्रकसी ने पाप कमय क्रकया तो मन में उपेक्षा का भाि 'क्रकया होगा छोडो' आदद प्रानतक्रियाएाँ उत्पन्न होनी चादहए|
  • 16.  चंिमा, दहमालय पियत, के ले के िृक्ष और चंदन शीतल माने गए हैं, पर इनमें से कु छ भी इतना शीतल नहीं जजतना मनुष्य का तृष्णा रदहत धचत्त। — िलशष्ठ